UTTARAKHAND FESTIVAL (एतिहासिक पर्व)


महाशिवरात्रि

शिवरात्रि तो हर महीने में आती है लेकिन महाशिवरात्रि सालभर में एक बार आती है। फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि का त्योहार मनाया जाता है। इस बार साल 2021 में यह पर्व 11 मार्च सोमवार को है। महाशिवरात्रि का महत्व इसलिए है क्योंकि यह शिव और शक्ति की मिलन की रात है। आध्यात्मिक रूप से इसे प्रकृति और पुरुष के मिलन की रात के रूप में बताया जाता है। शिवभक्त इस दिन व्रत रखकर अपने आराध्य का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। मंदिरों में जलाभिषेक का कार्यक्रम दिन भर चलता है। लेकिन क्या आपको पता है कि महाशिवरात्रि क्यों मनाई जाती है, इसके पीछे की घटना क्या है।

पहली बार प्रकट हुए थे शिवजी
पौराणिक कथाओं के अनुसार, महाशिवरात्रि के दिन शिवजी पहली बार प्रकट हुए थे। शिव का प्राकट्य ज्योतिर्लिंग यानी अग्नि के शिवलिंग के रूप में था। ऐसा शिवलिंग जिसका ना तो आदि था और न अंत। बताया जाता है कि शिवलिंग का पता लगाने के लिए ब्रह्माजी हंस के रूप में शिवलिंग के सबसे ऊपरी भाग को देखने की कोशिश कर रहे थे लेकिन वह सफल नहीं हो पाए। वह शिवलिंग के सबसे ऊपरी भाग तक पहुंच ही नहीं पाए। दूसरी ओर भगवान विष्णु भी वराह का रूप लेकर शिवलिंग के आधार ढूंढ रहे थे लेकिन उन्हें भी आधार नहीं मिला।


64 जगहों पर प्रकट हुए थे शिवलिंग

एक और कथा यह भी है कि महाशिवरात्रि के दिन ही शिवलिंग विभिन्न 64 जगहों पर प्रकट हुए थे। उनमें से हमें केवल 12 जगह का नाम पता है। इन्हें हम 12 ज्योतिर्लिंग के नाम से जानते हैं। महाशिवरात्रि के दिन उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में लोग दीपस्तंभ लगाते हैं। दीपस्तंभ इसलिए लगाते हैं ताकि लोग शिवजी के अग्नि वाले अनंत लिंग का अनुभव कर सकें। यह जो मूर्ति है उसका नाम लिंगोभव, यानी जो लिंग से प्रकट हुए थे। ऐसा लिंग जिसकी न तो आदि था और न ही अंत।

शिव और शक्ति का हुआ था मिलन
महाशिवरात्रि को पूरी रात शिवभक्त अपने आराध्य का जागरण करते हैं। शिवभक्त इस दिन शिवजी की शादी का उत्सव मनाते हैं। मान्यता है कि महाशिवरात्रि को शिवजी के साथ शक्ति की शादी हुई थी। इसी दिन शिवजी ने वैराग्य जीवन छोड़कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया था। शिव जो वैरागी थी, वह गृहस्थ बन गए। माना जाता है कि शिवरात्रि के 15 दिन पश्चात होली का त्योहार मनाने के पीछे एक कारण यह भी है।

सातूं-आठू त्यौहार (गौरा – महेश पूजा) 

नमस्कार दोस्तों, आज हम आपको इस पोस्ट में उत्तराखंड में मनाई जाने वाली “लोकप्रियत्यौहार सातूं-आठू ( गौरामहेशपूजा) के बारे में बाते वाले हैं |

देवभूमि में कई ऐसे एतिहासिक पर्व मनाये जाते हैं उनमे से सबसे खास यूं कहे सबसे लोकप्रिय त्यौहार सातूं-आठू (गौरा – महेश पूजा ) मनाई जाती हैं| यह पर्व बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता हैं यह पर्व (भादौ) भाद्रमाह के सप्तमी – अष्ठमी को मनाया जाता हैं कहा जाता है कि सप्तमी को माँ गौरा  अपने मायके से रूठ कर मायके आती हैं तथा उन्हें लेने अष्टमी को भगवान महेश, आते हैं

गांव के सभी लोग सप्तमी अष्ठमी को माँ गौरा और भगवान महेश की पूजा करते हैं सप्तमी को माँ गौरा व्  अष्टमी को भगवान महेश की मूर्ति बनाई जाती है इस मूर्ति में धतूरा,मक्का,तिल व बाजरा का पौधा लगा के उनको सुन्दर वस्त्र पहनाएं जाते हैं| सप्तमी की रात को सभी महिलाएं विधि अनुसार पूजा करती हैं तथा भजन कीर्तन करती हैं|  साथ ही झोड़ा चाचरी (नाच, गाना)  के साथ इस पर्व को बेहद हर्षोल्लास से मानते हैं| महिलाए  सातूं-आठू पूजा में दो दिन व्रत (उपवास) रखती हैं| आठो (अष्ठमी) की सुबह भगवान महेश तथा माँ गौरा को बिरुड चढ़ाए जाते हैं| तथा महिलाएं सुन्दर गीत गाते हुए माँ गौरा को विदा करती हैं और माँ गौरा भगवान महेश की मूर्ति को स्थानीय मंदिर में विसर्जित किया जाता हैं माँ गौरा को (गवरा दीदी) व भगवान महेश को (जीजाजी) भी कहा जाता है|


सातूं-आठू बिरुड पंचमी के बारे में  

सातूं-आठू पर्व से पहले भादौ महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी को बिरुड़ पंचमी के नाम से जाना जाता है| इसी दिन से सातूं-आठू पर्व की धूम मचने लगती है। इस दिन गाँव-घरों में एक तांबे के बर्तन को साफ करके धोने के बाद इस पर गाय के गोबर से पाँच आकृतियाँ बनाई जाती हैं और उन पर दुब घास लगाई जाती है और इनपर अछ्त पीठाँ (टीका) लगा कर उस बर्तन में पाँच या सात प्रकार के अनाज के बीजों को भिगाया जाता है इन बीजों में मुख्यतया गेहूं, चना, भट्ट, मास, कल्यूं, मटर, गहत आदि होते हैं। पंचमी को भीगा ने के बाद सातों के दिन इन्हें पानी के धारे पर ले जाकर धोया जाता है जहां पर पाँच या सात पत्तों में इन्हें रखकर भगवान को भी चड़ाया जाता है। फिर आठों के दिन इन्हें गौरा-महेश को चड़ा कर व्रत टूटने के बाद में इसको प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता है। और सभी बड़े, बुजुर्ग, बच्चे एक दूसरे का बिरुड चढ़ाते है और आशीर्वाद देते हैं| साम को इन्हें पकाया भी जाता है।

सातूं-आठू विरूड़ाष्टमी की कथा

विरूड़ाष्टमी के दिन महिलायें गले में दुबड़ा (लाल धागा) धारण करती हैं पौराणिक कथाओं के अनुसार पुरातन काल में एक ब्राहमण था जिसका नाम बिणभाट था। उसके सात पुत्र व साथ बहुएं भी थी लेकिन इनमें से सारी बहुएं निसंतान थी। इस कारण वह बहुत दुखी था। एक बार वह भाद्रपद सप्तमी को अपने यजमानों के यहां से आ रहा था। रास्ते में एक नदी पड़ती थी। नदी पार करते हुए उसकी नजर नदी में बहते हुए दाल के छिलकों में पड़ी| उसने ऊपर से आने वाले पानी की ओर देखा तब उसकी नजर एक महिला पर पड़ी जो नदी के किनारे कुछ धो रही थी| वह उस स्त्री के पास गया वहां जा के देखा वह स्त्री कोई और नहीं बल्कि स्वयं पार्वती थी, और कुछ दालों के दानों को धो रही थी। बिणभाट ने बड़ी सहजता से इसका कारण पूछा  तब उन्होंने बताया कि वह अगले दिन आ रही विरूड़ाष्टमी पूजा के विरूड़ों को धो रही है। तब बिणभाट ने इस पूजा की विधि तथा इसे मिलने वाले फल (आशीर्वाद) के बारे में जानने की इच्छा की तब माँ पार्वती ने इस व्रत का महत्व बताया| भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को महिलायें व्रत रख कर बिरूड़ों को गेहूँ, चना, मास, मटर, गहत पञ्च अनाज को उमा-महेश्वर का ध्यान करके घर के एक कोने में अखंड दीपक जलाकर तांबे के बर्तन में भिगा दिया जाता है। दो दिन तक भीगने के बाद तीसरे दिन सप्तमी को इन्हें धोकर साफ कर लिया जाता है। अष्टमी को व्रतोपवास करके इन्हें गौरा-महेश्वर को चढ़ाया जाता हैं| भाट ने घर आकर बड़ी बधु को यथाविधि बिरूड़ भिगाने को कहा। बहु ने ससुर के कहे अनुसार अगले दिन व्रत रखकर दीपक जलाया और पंच्च अनाजो को एकत्र कर उन्हें एक पात्र में डाला। जब वह उन्हें भिगो रही थी तो उसने एक चने का दाना मुंह में डाल लिया जिससे उसका व्रत भंग हो गया। इसी प्रकार छहों बहुओं का व्रत भी किसी न किसी कारण भंग हो गया।
सातवीं वहु सीधी थी। उसे गाय-भैंसों को चराने के काम में लगाया था। उसे जंगल से बुलाकर बिरूड़े भिगोने को कहा गया। उसने दीपक जला बिरूड़े भिगोये। तीसरे दिन उसने विधि विधान के साथ सप्तमी को उन्हें अच्छी तरह से धोया| अष्टमी के दिन व्रत रखकर शाम को उनसे गौरा-महेश्वर की पूजा की। दूब की गांठों को डोरी में बांध दुबड़ा पहना और बिरूड़ों का प्रसाद ग्रहण किया। मां पार्वती के आशीर्वाद से दसवें माह उसकी कोख से पुत्र ने जन्म लिया। बिणभाट प्रसन्न हो गया। तभी से महिलाऐं संतति की कामना तथा उसके कल्याण के लिए आस्था के साथ इस व्रत को किया करती हैं।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 

जन्माष्टमी का महत्व और इतिहास

जन्माष्टमी का त्योहार हिन्दुओं के लिए बहुत ही उत्साह  भरा पर्व है, जन्माष्टमी को श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है।

श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। इनका जन्म देवकी और वासुदेव के पुत्र के रूप में मथुरा में हुआ था|

उन्होंने मथुरावासियों को निर्दयी कंस के शासन से मुक्ति दिलाई इतना ही नहीं महाभारत के युद्ध में पांडवों को जीत दिलाने में भी अहम भूमिका निभाई थी ।
जन्माष्टमी एक ऐसा त्योहार है जिसे लोग पूरे उत्साह के साथ मनाते है। इस पवित्र दिन में भक्त मंदिरों में भगवान से प्रार्थना कर उन्हें भोग लगाते है। इस दिन लोग अपने घरों में बालगोपाल को दूध,शहद,पानी से अभिषेक कर नए वस्त्र पहनाते है।

जन्माष्टमी क्यों मानाई जाती है?

पौराणिक ग्रथों के अनुसार भगवान विष्णु ने इस धरती को पापियों के जुल्मों से मुक्त कराने के लिए भगवान श्री कृष्ण के रूप में अवतार लिए था।

श्रीकृष्ण ने माता देवकी की कोख से इस धरती पर अत्याचारी मामा कंस का वध करने के लिए मथुरा में अवतार लिया था इनका पालन पोषण माता यशोदा ने किया। श्रीकृष्ण बचपन से ही बहुत नटखट थे उनकी कई सखिंया भी थी।

जन्माष्टमी कैसे मनाई जाती है?

जन्माष्टमी कई जगह अलग-अलग तरीक में मनाई जाती है। कई जगह इस दिन फूलों की होली भी खेली जाती है तथा साथ में रंगों की भी होली खेली जाती है। जन्माष्टमी के पर्व पर झाकियों के रूप में श्रीकृष्ण का मोहक अवतार देखने को मिलते है। मंदिरो को इस दिन काफी सहजता से सजाया जाता है। और कई लोग इस दिन व्रत भी रखते है। जन्माष्टमी के दिन मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण को झूला झूलाया जाता है। जन्माष्टमी को मथुरा नगरी में बहुत ही हर्षोल्लास से मानाया जाता है। जोकि श्रीकृष्ण की जन्मनगरी है।

दही हांडी का महत्व-

dahihandi

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श्रीकृष्ण को माखन दूध,दही काफी पसन्द था जिसकी  वजह से पूरे गांव का माखन चोरी करके खा जाते थे। एक दिन उन्हें माखन चोरी करने से रोकने के लिए, उनकी मां यशोदा को उन्हें एक खंभे से बांधना पड़ा और इसी वजह से भगवान श्रीकृष्ण का नाम माखन चोर पड़ा।

वृन्दावन में महिलाओं ने मथे हुए माखन की मटकी को ऊंचाई पर लटकाना शुरू कर दिया, जिससे की श्रीकृष्ण का हाथ वहां तक न पहुंच सके, लेकिन नटखट कृष्ण की समझदारी के आगे उनकी ये  योजना भी व्यर्थ साबित हुई,माखन चुराने के लिए श्रीकृष्ण ने अपने दोस्तों के साथ मिल कर योजना बनाई और साथ मिलकर ऊंचाई में लटकाई मटकी से दही और माखन चुरा लिया वही से प्रेरित होकर दही हांडी शुरू हुआ ।


घुघुतिया का त्यौहार

उत्तराखंड राज्य के कुमाउं में मकर सक्रांति पर “घुघुतिया” के नाम से त्यौहार मनाया जाता है | यह कुमाऊँ का सबसे बड़ा त्यौहार माना जाता है और यह एक स्थानीय पर्व होने के साथ साथ स्थानीय लोक उत्सव भी है क्योंकि इस दिन एक विशेष प्रकार का व्यंजन घुघुत बनाया जाता है | इस त्यौहार की अपनी अलग पहचान है | इस त्यौहार को उत्तराखंड में “उत्तरायणी” के नाम से मनाया जाता है एवम् गढ़वाल में इसे पूर्वी उत्तरप्रदेश की तरह “खिचड़ी सक्रांति” के नाम से मनाया जाता है | विश्व में पशु पक्षियों से सम्बंधित कई त्योहार मनाये जाते हैं पर कौओं को विशेष व्यंजन खिलाने का यह अनोखा त्यौहार उत्तराखण्ड के कुमाऊँ के अलावा शायद कहीं नहीं मनाया जाता है | यह त्यौहार विशेष कर बच्चो और कौओ के लिए बना है | इस त्यौहार के दिन सभी बच्चे सुबह सुबह उठकर कौओ को बुलाकर कई तरह के पकवान खिलाते है और कहते है :-

“काले कौओ काले घुघुती बड़ा खाले ,
लै कौआ बड़ा , आपु सबुनी के दिए सुनक ठुल ठुल घड़ा ,
रखिये सबुने कै निरोग , सुख समृधि दिए रोज रोज |”

इसका अर्थ है काले कौआ आकर घुघुती(इस दिन के लिए बनाया गया पकवान) , बड़ा (उरद का बना हुए पकवान) खाले , ले कौव्वे खाने को बड़ा ले और सभी को सोने के बड़े बड़े घड़े दे , सभी लोगो को स्वस्थ रख और समृधि दे |

घुघुतिया त्यौहार क्यों मनाया जाता है ?

घुघुतिया त्यौहार मनाने के पीछे एक लोकप्रिय लोककथा है | यह लोककथा कुछ इस प्रकार है | जब कुमाउं में चन्द्र वंश के राजा राज करते थे , तो उस समय राजा
कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी, संतान ना होने के कारण उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं था | उनका मंत्री सोचता था कि राजा के मरने के बाद राज्य उसे ही मिलेगा | एक बार राजा कल्याण चंद अपनी पत्नी के साथ बागनाथ मंदिर  के दर्शन के लिए गए और संतान प्राप्ति के लिए मनोकामना करी और कुछ समय बाद राजा कल्याण चंद को संतान का सुख प्राप्त हो गया , जिसका नाम “निर्भय चंद” पडा | राजा की पत्नी अपने पुत्र को प्यार से “घुघती” के नाम से पुकारा करती थी और  अपने पुत्र के गले में “मोती की माला” बांधकर रखती थी | मोती की माला से निर्भय का विशेष लगाव हो गया था इसलिए उनका पुत्र जब कभी भी किसी वस्तु की हठ करता तो रानी अपने पुत्र निर्भय को यह कहती थी कि “हठ ना कर नहीं तो तेरी माला कौओ को दे दूंगी” | उसको डराने के लिए रानी “काले कौआ काले घुघुती माला खाले” बोलकर डराती थी | ऐसा करने से कौऐ आ जाते थे और रानी कौओ को खाने के लिए कुछ दे दिया करती थी | धीरे धीरे निर्भय और कौओ की दोस्ती हो गयी | दूसरी तरफ मंत्री घुघुती(निर्भय) को मार कर राज पाठ हडपने की उम्मीद लगाये रहता था ताकि उसे राजगद्दी प्राप्त हो सके |

एक दिन मंत्री ने अपने साथियो के साथ मिलकर षड्यंत्र रचा | घुघुती (निर्भय) जब खेल रहा था तो मंत्री उसे चुप चाप उठा कर ले गया | जब मंत्री घुघुती (निर्भय) को जंगल की ओर ले जा रहा था तो एक कौए ने मंत्री और घुघुती(निर्भय) को देख लिया और जोर जोर से कॉव-कॉव करने लगा | यह शोर सुनकर घुघुती रोने लगा और अपनी मोती की माला को निकालकर लहराने लगा | उस कौवे ने वह माला घुघुती(निर्भय) से छीन ली | उस कौवे की आवाज़ को सुनकर उसके साथी कौवे भी इक्कठा हो गए एवम् मंत्री और उसके साथियो पर नुकली चोंचो से हमला कर दिया | हमले से घायल होकर मंत्री और उसके साथी मौका देख कर जंगल से भाग निकले |

राजमहल में सभी घुघुती(निर्भय) की अनूपस्थिति से परेशान थे | तभी एक कौवे  ने घुघुती(निर्भय) की मोती की माला रानी के सामने फेक दी | यह देख कर सभी को संदेह हुआ कि कौवे को घुघुती(निर्भय) के बारे में पता है इसलिए सभी कौवे के पीछे जंगल में जा पहुंचे और उन्हें पेड के निचे निर्भय दिखाई दिया | उसके बाद रानी ने अपने पुत्र को गले लगाया और राज महल ले गयी | जब राजा को यह पता चला कि उसके पुत्र को मारने के लिए मंत्री ने षड्यंत्र रचा है तो राजा ने मंत्री और उसके साथियों को मृत्यु दंड दे दिया | घुघुती के मिल जाने पर रानी ने बहुत सारे पकवान बनाये और घुघुती से कहा कि अपने दोस्त कौवो को भी बुलाकर खिला दे और यह कथा धीरे धीरे सारे कुमाउं में फैल गयी और इस त्यौहार ने बच्चो के त्यौहार का रूप ले लिया | तब से हर साल इस दिन धूम धाम से इस त्यौहार को मनाया जाता है | इस दिन मीठे आटे से जिसे “घुघुत” भी कहा जाता है | उसकी माला बनाकर बच्चों द्वारा कौवों को खिलाया जाता है |

शास्त्रों के अनुसार घुघुतिया त्यौहार की ऐसी मान्यता है कि इस दिन सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने उनके घर जाते है इसलिए इस दिन को मकर सक्रांति के नाम से ही जाना जाता है |

महाभारत की कथा के अनुसार भीष्म पितामह ने अपने देह त्याग ने के लिए मकर सक्रांति का ही दिन चुना था | यही नहीं यह भी कहा जाता है कि मकर सक्रांति के दिन
ही गंगाजी भागीरथी के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थी | साथ ही साथ इस दिन से सूर्य उत्तरायण की ओर प्रस्थान करता है , उत्तर दिशा में देवताओं का वास भी माना जाता है इसलिए इस दिन जप-तप , दान-स्नान , श्राद्ध-तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है | 

घी त्यार



उत्तराखंड कृषि पर आधारित एक राज्य है |
पौराणिक समय से यहाँ की सभ्यता जल , जंगल और जमीन से मिलने वाले संसाधन पर निर्भय रही है |
प्रकर्ति और किसानो का उत्तराखंड के लोक जीवन में अत्यधिक महत्व रहा है |
सौर मासीय पंचांग के अनुसार सूर्य एक राशि में संचरण करते हुए जब दूसरी राशि में प्रवेश करता है तो उसे संक्रांति कहते हैं।
इस तरह बारह संक्रांतियां होती हैं .इस को भी शुभ दिन मानकर कई त्योहार मनाये जाते हैं ।
और इन्ही त्यौहार में से एक है “घी तयार” |

उत्तराखंड में “घी त्यार”  क्यों मनाया जाता है ?

उत्तराखण्ड में हिन्दी मास (महीने) की प्रत्येक १ गते यानी संक्रान्ति को लोक पर्व के रुप में मनाने का प्रचलन रहा है।
उत्तराखंड में यूं तो प्रत्येक महीने की संक्रांति को कोई त्योहार मनाया जाता है।
भाद्रपद (भादो)महीने की संक्रांति जिसे सिंह संक्रांति भी कहते हैं ।
इस दिन सूर्य “सिंह राशि” में प्रवेश करता है और इसलिए इसे सिंह संक्रांति भी कहते हैं।
उत्तराखंड में भाद्रपद संक्रांति को ही घी संक्रांति के रूप में मनाया जाता है।
यह त्यौहार भी हरेले की ही तरह ऋतु आधारित त्यौहार है,
हरेला जिस तरह बीज को बोने और वर्षा ऋतू के आने के प्रतीक का त्यौहार है |
वही “घी त्यार” अंकुरित हो चुकी फसल में बालिया के लग जाने पर मनाये जाने वाला त्यौहार है |

यह खेती बाड़ी और पशु के पालन से जुड़ा हुआ एक ऐसा लोक पर्व है |
जो की जब बरसात के मौसम में उगाई जाने वाली फसलों में बालियाँ आने लगती हैं ।
तो किसान अच्छी फसलों की कामना करते हुए ख़ुशी मनाते हैं।
फसलो में लगी बालियों को किसान अपने घर के मुख्य दरवाज़े के ऊपर या दोनों और गोबर से चिपकाते है |
इस त्यौहार के समय पूर्व में बोई गई फसलों पर बालियां लहलहाना शुरु कर देती हैं।
साथ ही स्थानीय फलों, यथा अखरोट आदि के फल भी तैयार होने शुरु हो जाते हैं।
पूर्वजो के अनुसार मान्यता है कि अखरोट का फल घी-त्यार के बाद ही खाया जाता है । इसी वजह से घी तयार मनाया जाता है

उत्तराखंड में “घी त्यार” का महत्व |

उत्तराखंड में घी त्यार किसानो के लिए अत्यंत महत्व रखता है |
और आज ही के दिन उत्तराखंड में गढ़वाली , कुमाउनी सभ्यता के लोग घी को खाना जरुरी मानते है |
क्युकी घी को जरुरी खाना इसलिए माना जाता है क्युकी इसके पीछे एक डर भी छिपा हुआ है |
वो डर है घनेल ( घोंगा ) (Snail) का |
पहाड़ों में यह बात मानी जाती है कि जो घी संक्रांति के दिन जो व्यक्ति घी का सेवन नहीं करता वह अगले जन्म में घनेल (घोंघा) (Snail) बनता है ।
इसलिए इसी वजह से है कि नवजात बच्चों के सिर और पांव के तलुवों में भी घी लगाया जाता है ।

यहां तक उसकी जीभ में थोड़ा सा घी रखा जाता है ।
इस दिन हर परिवार के सदस्य जरूर घी का सेवन करते है ।
जिसके घर में दुधारू पशु नहीं होते गांव वाले उनके यहां दूध और घी पहुंचाते हैं |
बरसात में मौसम में पशुओं को खूब हरी घास मिलती है ।
जिससे की दूध में बढ़ोतरी होने से दही -मक्खन -घी की भी प्रचुर मात्रा मिलती है |
इस दिन का मुख्य व्यंजन बेडू की रोटी है। (जो उरद की दाल भिगो कर, पीस कर बनाई गई पिट्ठी से भरवाँ रोटी बनती है ) और घी में डुबोकर खाई जाती है। अरबी के बिना खिले पत्ते जिन्हें गाबा कहते हैं, उसकी सब्जी बनती है |


बसंत पंचमी का इतिहास , महत्व और क्यों मनाया जाता है ?

बसंत पंचमी हिन्दुओ का प्रमुख त्यौहार है और बसंत पचमी को श्री पंचमी और ज्ञान पंचमी भी कहा जाता है । यह त्यौहार माघ के महीने में शुक्ल पंचमी के दिन मनाया जाता है | पुरे वर्ष को 6 ऋतूओ में बाँटा जाता है , जिसमे वसंत ऋतू , ग्रीष्म ऋतू ,वर्षा ऋतू , शरद ऋतू , हेमंत ऋतू और शिशिर ऋतू शामिल है | इस सभी ऋतूओ में से वसंत को सभी ऋतूओ का राजा माना जाता है , इसी कारण इस दिन को बसंत पंचमी कहा जाता है तथा इसी दिन से बसंत ऋतु की शुरुआत होती है | इस ऋतु में खेतों में फसले लहलहा उठती है और फूल खिलने लगते है एवम् हर जगह खुशहाली नजर आती है तथा धरती पर सोना उगता है अर्थात धरती पर फसल लहलहाती है । मान्यता है कि इस दिन माता सरस्वती का जन्म हुआ था इसलिए बसंत पचमी के दिन सरस्वती माता की विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है । माँ सरस्वती को विद्या एवम् बुद्धि की देवी माना जाता है | बसंत पंचमी के दिन माँ सरस्वती से विद्या, बुद्धि, कला एवं ज्ञान का वरदान मांगा जाता है । इस दिन लोगों को पीले रंग के कपडे पहन कर पीले फूलो से देवी सरस्वती की पूजा करनी चाहिए एवम् लोग पतंग उड़ाते और खाद्य सामग्री में मीठे पीले रंग के चावाल का सेवन करते है | पीले रंग को बसंत का प्रतीक माना जाता है |

बसंत पंचमी का त्यौहार बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है | इस दिन देवी सरस्वती की पूजा करने के पीछे एक पौराणिक कथा है | सर्वप्रथम श्री कृष्ण और ब्रह्मा जी ने देवी सरस्वती की पूजा की थी | देवी सरस्वती ने जब श्री कृष्ण को देखा तो वो उनके रूप को देखकर मोहित हो गयी और पति के रूप में पाने के लिए इच्छा करने लगी | इस बात का भगवान श्री कृष्ण को पता लगने पर उन्होंने देवी सरस्वती से कहा कि वे तो राधा के प्रति समर्पित है परन्तु सरस्वती को प्रसन्न करने के लिए भगवान श्री कृष्ण देवी सरस्वती को वरदान देते है कि प्रत्येक विद्या की इच्छा रखने वाले को माघ महीने की शुल्क पंचमी को तुम्हारा पूजन करेंगे | यह वरदान देने के बाद सर्वप्रथम ही भगवान श्री कृष्ण ने देवी की पूजा की |

बसंत पंचमी का इतिहास (History of Basant Panchami)

शास्त्रों एवं पुराणों कथाओं के अनुसार बसंत पंचमी और सरस्वती पूजा को लेकर एक बहुत ही रोचक कथा है, कथा कुछ इस प्रकार है।

बसंत पंचमी के ऐतिहासिक महत्व को लेकर यह मान्यता है कि सृष्टि रचियता भगवान ब्रह्मा ने जीवो और मनुष्यों की रचना की थी तथा ब्रह्मा जी जब सृष्टि की रचना करके उस संसार में देखते हैं तो उन्हें चारों ओर सुनसान निर्जन ही दिखाई देता है एवम् वातावरण बिलकुल शांत लगता है जैसे किसी की वाणी ना हो | यह सब करने के बाद भी ब्रह्मा जी मायूस , उदास और संतुष्ट नहीं थे | तब ब्रह्मा जी भगवान् विष्णु जी से अनुमति लेकर अपने कमंडल से जल पृथ्वी पर छिडकते है | कमंडल से धरती पर गिरने वाले जल से पृथ्वी पर कंपन होने लगता है और एक अद्भुत शक्ति के रूप में चतुर्भुजी(चार भुजाओं वाली) सुंदर स्त्री प्रकट होती है । उस देवी के एक हाथ में वीणा और दुसरे हाथ में वर मुद्रा होती है बाकी अन्य हाथ में पुस्तक और माला थी | ब्रह्मा जी उस स्त्री से वीणा बजाने का अनुरोध करते है | देवी के वीणा बजाने से संसार के सभी जीव-जंतुओ को वाणी प्राप्त को जाती है | उस पल के बाद से देवी को “सरस्वती” कहा गया | उस देवी ने वाणी के साथ-साथ विद्या और बुद्धि भी दी इसलिए बसंत पंचमी के दिन घर में सरस्वती की पूजा भी की जाती है | अर्थात दुसरे शब्दों में बसंत पंचमी का दूसरा नाम “सरस्वती पूजा” भी है | देवी सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है ।

बसंत पंचमी का महत्व !! (IMPORTANCE OF BASANT PANCHAMI !!)

भारतीय पंचांग में छह ऋतूऐ होती है | बसंत ऋतू को ऋतुओ का राजा कहा जाता है | बसंत पंचमी फूलों के खिलने और नई फसल के आने का त्योहार है | ऋतुराज बसंत का बहुत अत्यधिक महत्व है | ठंड के बाद प्रकृति की छटा देखते ही बनती है | इस मौसम में खेतों में सरसों की फसल पीले फूलों के साथ , आम के पेड़ पर आए फूल , चारों तरफ हरियाली और गुलाबी ठण्ड मौसम को और भी खुशनुमा बना देती है , यदि सेहत की दृष्टि से देखा जाए तो यह मौसम बहुत अच्छा होता है | इंसानों के साथ-साथ पशु पक्षियों में नई चेतना का संचार होता है , इस ऋतू को कामबाण के लिए भी अनुकूल माना जाता है , यदि हिन्दू मान्यताओं के अनुसार देखा जाए तो इस दिन देवी सरस्वती का जन्म हुआ था , यही कारण है कि यह त्यौहार हिंदुओं के लिए बहुत खास है | इस त्यौहार पर पवित्र नदियों में लोग स्नान आदि करते हैं , इसके साथ ही हाथी बसंत मेला आदि का भी आयोजन किया जाता है |

बसंत पंचमी के दिन को बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के आरंभ के लिए शुभ मानते हैं। इस दिन बच्चे की जीभ पर शहद से ॐ बनाना चाहिए। माना जाता है कि इससे बच्चा ज्ञानवान होता है व शिक्षा जल्दी ग्रहण करने लगता है । 6 माह पूरे कर चुके बच्चों को अन्न का पहला निवाला भी इसी दिन खिलाया जाता है । अन्नप्राशन के लिए यह दिन अत्यंत शुभ है । बसंत पंचमी को परिणय सूत्र में बंधने के लिए भी बहुत सौभाग्यशाली माना जाता है इसके साथ-साथ गृह प्रवेश से लेकर नए कार्यों की शुरुआत के लिए भी इस दिन को शुभ माना जाता है ।


RAKSHA BANDHAN

रक्षा बंधन

रक्षाबंधन का महत्व-

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रक्षा बंधन हिन्दूओं का महत्वपूर्ण पर्व है। जो भारत के कई हिस्सों में मानाया जाता है।यह श्रावण पूर्णीमा के दिन मानाया जाता है। श्रावण का महिना पवित्र महिना माना जाता हैं श्रावण माह में शिव की पूजा अर्चना भी की जाती हैं|

रक्षाबंधन भाई-बहनों के बीच मानाया जाने वाला पवित्र त्योहार है। इस दिन बहन अपने भाई को रक्षा का धागा बधंती है। और भाई अपनी बहन को जीवन भर उनकी रक्षा करने का वचन देते है। इस त्यौहार के दिन भाई बहन एक साथ भगवान की पूजा करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करते है।

रक्षाबंधन कब प्रारम्भ हुआ-

रक्षाबंधन की मान्यता है। कि देवों और दानवों के बीच युद्ध में जब देवता हारने लगे, तब वे देवराज इंद्र के पास गए। देवताओं को भयभीत देखकर  इंद्राणी ने उनके हाथों में रक्षासूत्र बांध दिया। इससे देवताओं का आत्मविश्वास बढ़ा और उन्होंने दानवों पर विजय प्राप्त की, तब से यह पवित्र धागा  बांधने की प्रथा शुरू हुई।

महाभारत में राखी का महत्व –

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महाभारत में रक्षाबंधन की मान्यता हैं जब युधिष्ठिर ने भागवान श्रीकृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार करू, तब कृष्ण ने उनकी सेना की रक्षा के लिए राखी का त्यौहार मनाने की सलाह दी थी। शिशुपाल का वध करते समय जब कृष्ण की तर्जनी में चोट आई तो द्रौपती ने लहू को रोकने के लिए अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उंगली में बांध दी थी। तब कृष्ण ने द्रौपदी की रक्षा करने का वचन दिया था। इस ऋण को चुकाने के लिए दुःशासन द्वारा चीरहरण करते समय भगवान कृष्ण ने द्रापदी की लाज रखी।

राजा बलि की कथा-

वामन पुराण के कथा अनुसार जब भगवान विष्णु ने राजा बलि से तीन पग में उनका सब कुछ ले लिया था, तब राजा बलि ने भगवान विष्णु से एक वरदान मांगा कि वह उनकें साथ पाताल में निवास करें।

भगवान विष्णु को वरदान के कारण, पाताल जाना पड़ा इससे देवी लक्ष्मी बहुत दुखी हुई। लक्ष्मी जी भगवान विष्णु को वामन से मुक्त करवाने के लिए, वृद्ध  महिला का वेष लेकर पाताल गयी, और वामन को राखी बांधकर उन्हे अपना भाई बना लिया।

वामन ने जब देवी लक्ष्मी से कुछ मांगने के लिए कहा, तो देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को, पाताल से बैकुंठ भेजने के लिए कहा। बहन की बात रखने के लिए, वामन ने भागवान विष्णु को देवी लक्ष्मी के साथ बैकुंठ भेज दिया।

रक्षा बंधन कैसे मनाया जाता है?

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रक्षाबंधन भाई बहन का स्नेहपूर्ण त्यौहार होता हैं पूरा दिन उल्लास भरा होता है। पूजा की थाली सजायी जाती हैं

थाली में राखी के साथ रोली या हल्दी,चावल,दीपक,मिठाई और कुछ पैसे रखे जाते है। सबसे पहले अभीष्ट देवता की पूजा की जाती है, इसके भाई को टीका लगाया जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है, दाहिनी कलाई पर राखी बाँधी जाती है। और भाई बहन को उपहार देता है।इस प्रकार रक्षा बधन को मनाया जाता है।

रक्षासूत्र बाधने का मंत्र-

  ” येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो  महाबलः।

तेन त्वां प्रतिबध्नामि,रक्षे!मा चल!मा चल।।”

अर्थात- जिस प्रकार राजा बलि ने रक्षासूत्र से बंधकर विचलित हुए बिना अपना सब कुछ दान कर दिया। उसी प्रकार हे रक्षा! आज मैं तुम्हें बांधता हूँ ,तू भी अपने उद्धेश्य से विचलित न हो और दृढ़ बना रहे।


फुलदेई पर्व – उत्तराखंड का लोकपर्व !!

फूलदेई छम्मा देई त्यौहार क्यों मनाया जाता है !! ( इतिहास और मान्यताये )

फुलदेई पर्व

उत्तराखंड की धरती पर ऋतुओं के अनुसार कई अनेक पर्व मनाए जाते हैं । यह पर्व हमारी संस्कृति को उजागर करते हैं , वहीं पहाड़ की परंपराओं को भी कायम रखे हुए हैं । इन्हीं खास पर्वो में शामिल “फुलदेई पर्व” उत्तराखंड में एक लोकपर्व है | उत्तराखंड में इस त्योहार की काफी मान्यता है | इस त्योहार को फूल सक्रांति भी कहते हैं, जिसका सीधा संबंध प्रकृति से है । इस समय चारों ओर छाई हरियाली और नए-नए प्रकार के खिले फूल प्रकृति की खूबसूरती में चार-चांद लगा देते है | हिंदू कैलेंडर के अनुसार चैत्र महीने से ही नव वर्ष होता है और नववर्ष के स्वागत के लिए खेतो में सरसों खिलने लगती है और पेड़ो में फुल भी आने लग जाते है | उत्तराखंड में चैत्र मास की संक्रांति अर्थात पहले दिन से ही बसंत आगमन की खुशी में फूलों का त्योहार “फूलदेई” मनाया जाता है , जो कि बसन्त ऋतु के स्वागत का प्रतीक है।। चैत्र के महीने में उत्तराखंड के जंगलो में कई प्रकार के फूल खिलते है , ये फूल इतने मनमोहक व् सुन्दर होते है कि जिनका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता है | इस फूल पर्व में नन्हे-मुन्ने बच्चे प्रातः सूर्योदय के साथ-साथ घर-घर की देहली पर रंग बिरंगे फूल को चढ़ाते हुए घर की खुशहाली , सुख-शांति की कामना के गीत गाते हैं अर्थात जिसका मतलब यह है कि हमारा समाज फूलों के साथ नए साल की शुरूआत करे । इसके लिए बच्चो को परिवार के लोग गुड़, चावल व पैसे देते हैं | ज्योतिषियों के मुताबिक यह पर्व पर्वतीय परंपरा में बेटियों की पूजा, समृद्धि का प्रतीक होने के साथ ही “रोग निवारक औषधि संरक्षण” के दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। फुलदेई पर्व के दिन एक मुख्य प्रकार का व्यंजन बनाया जाता है जिसे “सयेई” कहा जाता है | फूलों का यह पर्व कहीं पूरे चैत्र मास तक चलता है , तो कहीं आठ दिनों तक । बच्चे फ्योंली, बुरांस और दूसरे स्थानीय रंग बिरंगे फूलों को चुनकर लाते हैं और उनसे सजी फूलकंडी लेकर घोघा माता की डोली के साथ घर-घर जाकर फूल डालते हैं। भेंटस्वरूप लोग इन बच्चों की थाली में पैसे, चावल, गुड़ इत्यादि चढ़ाते हैं । घोघा माता को ” फूलों की देवी” माना जाता है । फूलों के इस देव को बच्चे ही पूजते हैं। अंतिम दिन बच्चे घोघा माता की बड़ी पूजा करते हैं और इस अवधि के दौरान इकठ्ठे हुए चावल, दाल और भेंट राशि से सामूहिक भोज पकाया जाता है।

फुलदेई पर्व के मौके पर बच्चे गीत गाते हैं।

फूल देई, छम्मा देई,
देणी द्वार, भर भकार,
ये देली स बारम्बार नमस्कार,
फूले द्वार……फूल देई-छ्म्मा देई

मंगल गीतों के बोल का अर्थ :-

फूल देई – देहली फूलों से भरपूर और मंगलकारी हो ।
छम्मा देई – देहली , क्षमाशील अर्थात सबकी रक्षा करे ।
दैणी द्वार – देहली , घर व समय सबके लिए दांया अर्थात सफल हो ।
भरि भकार – सबके घरों में अन्न का पूर्ण भंडार हो ।

इस दिन से लोकगीतों के गायन का अंदाज भी बदल जाता है , होली के त्यौहार की खुमारी में डूबे लोग इस दिन से ऋतुरैंण और चैती गायन में डूबने लगते हैं । ढोल-दमाऊ बजाने वाले लोग जिन्हें बाजगी, औली या ढोली कहा जाता है । वे भी इस दिन गांव के हर घर के आंगन में जाकर गीतों गायन करते हैं , जिसके फलस्वरुप उन्हें घर के मुखिया द्वारा चावल, आटा या अन्य कोई अनाज और दक्षिणा देकर विदा किया जाता है ।

“फुलदेई पर्व” क्यों मनाया जाता है ?

फुलदेई पर्व इस लिए मनाया जाता है क्यूंकि इस पर्व के बारे में यह कहा जाता है कि एक राजकुमारी का विवाह दूर काले पहाड़ के पार हुआ था , जहां उसे अपने मायके की याद सताती रहती थी । वह अपनी सास से मायके भेजने और अपने परिवार वालो से मिलने की प्रार्थना करती थी किन्तु उसकी सास उसे उसके मायके नहीं जाने देती थी । मायके की याद में तड़पती राजकुमारी एक दिन मर जाती है और उसके ससुराल वाले राजकुमारी को उसके मायके के पास ही दफना देते है और कुछ दिनों के पश्चात एक आश्चर्य तरीके से जिस स्थान पर राजकुमारी को दफनाया था , उसी स्थान पर एक खूबसूरत पीले रंग का एक सुंदर फूल खिलता है और उस फूल को “फ्योंली” नाम दे दिया जाता है और उसी की याद में पहाड़ में “फूलों का त्यौहार यानी कि फूल्देइ पर्व” मनाया जाता है और तब से “फुलदेई पर्व” उत्तराखंड की परंपरा में प्रचलित है |

उम्मीद करते है कि आपको “ फुलदेई पर्व ” के बारे में पढ़कर आनंद आया होगा |


भैया दूज क्यों मनाया जाता है? HISTOY OF BHAIYA DUJ FESTIVAL 


भैयादूज त्यौहार की मान्यताएं एंव इतिहास-

भैया दूज हिन्दू धर्म में मनाया जाने वाला एक पवित्र पर्व है। जिसे भाई-बहन के रिश्ते को प्यार की डोर से मजबूत करने वाला त्यौहार माना जाता है। ये त्यौहार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वतीया तिथि को यानी दिपावली के दूसरे दिन मानाया जाता है। इसे भैयादूज या यमद्वतिया के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन सभी बहने अपने भाई को रोली चंदन का टिका लगाकर तथा चूड़े (भने चावल) में तेल लगाकर चड़ाते है। और भाई की उज्जवल भविष्य की मनोकामना करती है। इस त्यौहार को सभी भाई- बहन बड़े धूमधाम तथा हर्षोउल्लास से मनाते है। उत्तराखंड में चूड़े यानी चावल को चड़ाते समय,  बहुत ही सुन्दर तरीके से आर्शीवाद देते समय बहन भाई को बोलती है।

“जी रैया जागी रैया, यो दिन यो बार भेटन रैया, आसमान बाराबर उच हैया,धरती बाराबर चैड़, स्याव बराबर चतुर हैया,तितुर बराबर तेज, लाग आठु,लाग सातु,यो दिन यो बार भेटन रैया”।

अर्थात आप हमने खुश रहना शुखी रहना। आसमान के बारबर ऊंचा उठ जाना।धरती के बराबर चैड़ा हो जाना। हिरन बराबर चालाक होना और तितुर के बारबर तेज होना। और हर त्यौहार में हम ऐसी मिलते रहे। ये आर्शीवाद देती है बहन |


पौराणिक कथा के अनुसार भैयादूज

पौराणिक कथाओं के अनुसार बताया जाता हैं कि यमराज की बहन यमुना अपने भाई से बहुत स्नेह करती थी। वह उन्हें हमेशा याद करती थी और उनकों घर आने को कहती थी। लेकिन यमराज अपने कामों में ज्यादा व्यस्त होने के कारण अपनी बहन के पास नहीं जा पाते थे, लेकिन एक बार कार्तिक शुक्ल के दिन यमुना ने अपने भाई के घर आने के लिए निमंत्रण भेजा और उन्हें वचनबद्ध कर दिया। यमराज ने उनकी बात मानते हुए, अपनी बहन के पास आने का बादा किया लेकिन बहन के घर जाने से पहले उन्होंने सभी जीवों को नरक से मुक्त कर दिया।

इसके बाद यमराज अपनी बहन यमुना के घर पहंचे, जिन्हें देख उनकी बहन यमुना का खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। उस दिन उनकी बहन ने अपने भाई का बड़ी धूमधाम से स्वागत किया और टिका चंदन लगाकर भाई की आरती उतारी साथ ही कई तरह के स्वादिष्ट पकवान बनाकर खिलाया।

यमराज अपनी बहन की इस प्रेम भक्ति को देख कर बडे़ प्रसन्न हुए और अपनी बहन को तोफे में कुछ मांगने को कहा बहन यमुना ने अपने भाई से तोफे में  आप हर साल इसी दिन मेरे घर आया करो और इस दिन जो भी बहन अपने भाई का आदर सत्कार करेगी, उसे कभी भी आपका भय ना रहे। यमराज ने उनकी बात मान ली  और वहां से विदा ले लिया । तब आज तक यह त्यौहार बड़े धूम धाम से मानाया जाता है।

भैया दूज को मानाने की विधि-

सबसे पहले बहन सुबह उठकर स्नान करती है। और उसके बाद पूजा पाठ करती है। सबसे पहले गणेश जी की पूजा की जाती है।उसके बाद भाई को रोली चंदन का टीका लगाकर चावल तेल  के बने चूडे़ चड़ाती है। और अनेक प्रकार के भोजन बनाकर भाई को खिलाती है।

दीपावली



रोशनी का त्योहार दीपावली भारतवर्ष में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह पावन पर्व अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है। सनातन धर्म मे दीपावली का विशेष महत्व है। दीपावली को पर्वों की माला भी कहा जाता है। क्योंकि यह पर्व केवल छोटी दीपावली और दीपावली तक सीमित नहीं रहता बल्कि भैया दूज तक चलता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम जी रावण का वध कर चौदह वर्ष के वनवास के बाद जननी जन्मभूमि अयोध्या वापस लौटे थे।

जिसकी खुशी में पूरी अवध नगरी दीये की चकाचौंध से सजाई जाती है और इसका हर्षोल्लास पूरे देश में देखने को मिलता है। वहीं धार्मिक ग्रंथो की मानें तो इस दिन समुद्र मंथन से धन की देवी मां लक्ष्मी का जन्म हुआ था। आज दीपावली के मौके पर हम आपको बता रहे हैं क्यों मनाई जाती है दीपावली और क्या है इसकी पौराणिक मान्यता।

14 वर्ष वनवास पूर्ण कर अवध लौटे थे भगवान राम

पौराणिक कथाओं के अनुसार कार्तिक मास की अमावस्या को भगवान राम चौदह वर्ष का वनवास पूर्ण करने के बाद अपनी जन्मभूमि अयोध्या वापस लौटे थे। जिसके उपलक्ष्य में हर साल कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को दीपावली का पावन पर्व मनाया जाता है। इस दिन पूरी अयोध्या नगरी को दीप के प्रकाश से दुल्हन की तरह सजाया जाता है, कलाकृतियों और रंग रोगन से रामजी की नगरी को सजाया जाता है। 

महाभारत काल से जुड़ी है दीपावली मनाने की परंपरा

दीपावली मनाने की परंपरा महाभारत काल से भी जुड़ी है। हिंदू महाग्रंथ महाभारत के अनुसार इसी कार्तिक मास की अमावस्या को पांडव तेरह वर्ष का वनवास पूर्ण कर वापस लौटे थे। कौरवों ने शतरंज के खेल में शकुनी मामा के चाल की मदद से पांडवो का सबकुछ जीत लिया था। इसके साथ ही पांडवो को राज्य छोड़कर वापस जाना पड़ा था। इसी कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को वह वापस लौटे थे। पांडवो के वापस लौटने की खुशी में लोगों ने दीप जलाकर खुशी मनाई थी। इसके बाद प्रत्येक वर्ष दीपावली का पावन पर्व मनाया जाता है।

मां लक्ष्मी का हुआ था जन्म

धार्मिक ग्रंथो की मानें तो समुद्र मंथन के दौरान इस दिन धन की देवी मां लक्ष्मी का जन्म हुआ था। इसलिए इस दिन गणेश और लक्ष्मी जी की पूजा का विधान है। मान्यता है कि इस दिन मां लक्ष्मी और गणेश जी की पूजा अर्चना करने से सुख-समृद्धि, यश वैभव की प्राप्ति होती है और सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

इस दिन श्रीकृष्ण जी ने नरकासुर का किया था वध

जब नरकासुर नामक दैत्य ने अपने आतंक से तीनों लोको में हाहाकार मचा दिया था और सभी देवी देवता व ऋषि मुनि उसके अत्याचार से परेशान हो गए थे। तब श्रीकृष्ण जी ने पत्नी सत्यभामा को अपना सारथी बनाकर उसका वध किया था, क्योंकि उसे वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु किसी महिला के हाथो ही होगी। उसका वध कर भगवान श्रीकृष्ण ने 16000 महिलाओं को मुक्त कराया था तथा समाज में सम्मान दिलाने के लिए उनसे विवाह किया था। इस जीत की खुशी को दो दिन तक मनाया गया था। जिसे नरक चतुर्दशी यानि छोटी दीपावली और दीपावली के रूप में मनाया जाता है।

राजा विक्रमादित्य का हुआ था राजतिलक

राजा विक्रमादित्य भारत के महान शासकों में से एक थे। अपनी बुद्धि, पराक्रम और जुनून से इन्होंने आर्यावर्त इतिहास में अपना नाम अमर किया था। मुगलों को धूल चटाने वाले राजा विक्रमादित्य अंतिम हिंदू राजा था। इतिहासकारों के मुताबिक इसी कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को उनका राज तिलक हुआ था।

सिखों के लिए दीपावली का पर्व है बेहद खास

सिखों के लिए भी इस पर्व का विशेष महत्व है। सिखों के तीसरे गुरु अमर दास साहब ने इस दिन को विशेष दर्जा दिया था। वहीं इस दिन 1619 ई में मुगल शासक जहांगीर ने सिख धर्म के छठे गुरु हरगोविंद साहब को 52 राजाओं के साथ ग्वालियर किले से आजद किया था। कहा जाता है कि दीपावली के दिन 1577 ई मे पंजाब के अमृसर जिले में स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास हुआ था।

इस दिन महावीर तीर्थकार ने प्राप्त किया था निर्वाण

जैन धर्म के अनुयाइयों के लिए भी यह पर्व बेहद खास है। दीपावली के दिन ही जैन धर्म के संस्थापक महावीर तीर्थकार ने निर्वाण प्राप्त किया था और देश दुनिया में जैन धर्म के प्रचार प्रसार के लिए निकल पड़े थे। एक तपस्वी बनने के लिए उन्होंने अपनी शाही जिदगी और परिवार को त्याग कर व्रत व तप को अपनाया था।





नवरात्रि


हिंदू कैलेंडर के मुताबिक शारदीय नवरात्रि हर साल शरद ऋतु में अश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होते हैं और इसका विशेष महत्व है. इस साल शारदीय नवरात्रि 7 अक्टूबर से शुरू होने जा रहे हैं. नवरात्रि में नौ दिनों तक भक्त मां के अलग-अलग स्वरूपों की पूजा-अर्चना करते हैं और मां को प्रसन्न करने के लिए व्रत भी किया जाता है. मान्यता है कि नौ दिनों तक भक्तिभाव से मां दुर्गा की पूजा करने से वह प्रसन्न होकर भक्तों के सभी कष्ट हर लेती हैं. नवरात्रि के पहले दिन मंदिर साफ करके वहां कलश स्थापना की जाती है. लेकिन क्या आप जानते है ​कि नवरात्रि क्यों मनाए जाते हैं और इसका क्या महत्व है.
नवरात्रि का महत्व
हिंदू धर्म में नवरात्रि एक साल में चार बार आते हैं लेकिन चैत्र और शारदीय नवरात्रि का विशेष महत्व है. ​हिंदू नववर्षक की शुरुआत चैत्र नवरात्रि से मानी जाती है. वहीं शारदीय नवरात्रि का भी अलग महत्व है. कहा जाता है क शारदीय नवरात्रि धर्म की अधर्म पर और सत्य की असत्य पर जीत का प्रतीक है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इन्हीं नौ दिनों में मां दुर्गा धरती पर आती है और धरती को उनका मायका कहा जाता है. उनके आने की खुशी में इन दिनों को दुर्गा उत्सव के तौर पर देशभर में धूमधाम से सेलिब्रेट किया जाता है. श्रध्दालु पहले दिन कलश स्थापना कर इन नौ दिनों तक व्रत-उपवास करते हैं.
नवरात्रि की पौराणिक कथा
नवरात्रि मनाए जाने को लेकर दो पौराणिक कथाएं प्रचलित है. पहली कथा के अनुसार महिषासुर नामक एक राक्षक ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर उनसे वरदाना मांगा था कि दुनिया में कोई भी देव, दानव या धरती पर रहने वाला मनुष्य उसका वध न कर सके. इस वरदान को पाने के ​बाद महिषासुर आतंक मचाने लगा. उसके आतंक को रोकने के लिए शक्ति के रुप में मां दुर्गा का जन्म हुआ. मां दुर्गा और महिषासुर के बीच नौ दिनों तक युद्ध चला और दसवें दिन मां ने महिषासुर का वध कर दिया.
दूसरी कथा के अनुसार जब भगवान राम लंका पर आक्रमण करने जा रहे थे तो उससे पहले उन्होंने मां भगवती की अराधनी की. भगवान राम ने नौ दिनों तक रामेश्वर में माता का पूजन किया और उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर मां ने उन्हें जीत का आर्शीवाद दिया. दसवें दिन राम जी ने रावण को हराकर लंक पर विजय प्राप्त की थी. तभी तक विजयदशमी का त्योहार मनाया जाता है.


होली 

होली का महत्व

भारतीय त्योहारों में होली का बहुत महत्व है। होली भारत के प्रमुख त्योहारों में से एक है। होली को फाल्गुन ’या वसंत ऋतु के आगमन के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है इसे फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। होली का त्योहार सर्दियों के मौसम के अंत का भी प्रतीक है। यह बहुत सारे रंग, पानी के फुहारे, और गुब्बारों के संग इस दिन को और रंगीन कर देता है। होली का त्योहार जश्न का त्योहार होता है इसलिए इस दिन विशेषरुप से खान-पान और नृत्य गायन किया जाता है।  होली का महत्व हमारे जीवन के हर पहलू में महसूस किया जाता है क्योंकि इस दिन हम अपने मतभेदों को भूल जाते हैं और त्योहार की खुशियों को साझा करने के लिए एक-दूसरे को गले लगाते हैं। भारत में होली का त्यौहार सभी के जीवन मे बहुत सारी खुशियॉ और रंग भरता है, लोगों के जीवन को रंगीन बनाने के कारण इसे आमतौर पर ‘रंग महोत्सव’ कहा गया है। यह लोगो के बीच एकता और प्यार लाता है।

होली का महत्व

इसे “प्यार का त्यौहार” भी कहा जाता है। यह एक पारंपरिक और सांस्कृतिक हिंदू त्यौहार है, जो प्राचीन समय से पुरानी पीढियों द्वारा मनाया जाता रहा है और प्रत्येक वर्ष नयी पीढी द्वारा इसका अनुकरण किया जा रहा है। होली का त्योहार भारत का एक राष्ट्रीय अवकाश है और होली का त्योहार हर वर्ग-हर उम्र के लोग, अमीर गरीब सब मनाते हैं यह किसी के भी बीच फर्क नहीं करता है। यहां  हर एक का रंगों के एकसाथ स्वागत किया जाता है। इस दिन युवा हो या बुजुर्ग, किसी को भी नहीं बख्शा जाता है, ऊपर से लेकर पैर तक हर जगह रंग दिया जाता है। आधुनिक स्थायी रंगों के साथ-साथ कई पारंपरिक और हर्बल रंगों का उपयोग आज होली के अवसर पर किया जाता है। यह ऐसा त्यौहार है जिसे लोग अपने परिवार के सदस्यो और रिश्तेदारों के साथ प्यार और स्नेह वितरित करके मनातें हैं जो उनके रिश्तों को भी मजबूती प्रदान करता हैं। यह एक ऐसा त्यौहार हैं जो लोगों को उनके पुराने बुरे व्यवहार को भुला कर रिश्तों की एक डोर मे बॉधता हैं। होली का हर रंग एक विशेष संदेश देकर जाता है।


होली का पौराणिक महत्व

होलिका दहन

फरवरी अंत या मार्च की शुरुआत में होली दो दिनों के लिए मनाई जाती है। होली मनाने के पीछे इसका पौराणिक महत्व भी है। पौराणिक कथा के अनुसार, शक्तिशाली राजा हिरण्यकश्यप था, वह खुद को भगवान मनाता था और चाहता था कि हर कोई भगवान की तरह उसकी पूजा करें। वहीं अपने पिता के आदेश का पालन न करते हुए हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रहलाद ने उसकी पूजा करने से इंकार कर दिया और उसकी जगह भगवान विष्णु की पूजा करनी शुरू कर दी। इस बात से नाराज हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र प्रहलाद को कई सजाएं दी जिनसे वह प्रभावित नहीं हुआ। इसके बाद हिरण्यकश्यप और उसकी बहन होलिका ने मिलकर एक योजना बनाई की वह प्रहलाद के साथ चिता पर बैठेगी। होलिका के पास एक ऐसा कपड़ा था जिसे ओढ़ने के बाद उसे आग में किसी भी तरह का नुकसान नहीं पहुंचता, दूसरी तरह प्रहलाद के पास खुद को बचाने के लिए कुछ भी न था। जैसे ही आग जली, वैसे ही वह कपड़ा होलिका के पास से उड़कर प्रहलाद के ऊपर चला गया। इसी तरह प्रहलाद की जान बच गई और उसकी जगह होलिका उस आग में जल गई। यही कारण है होली का त्योहार बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व आस्था और विश्वास का प्रतीक है।


होली का सांस्कृतिक महत्व

होली का सांस्कृतिक महत्व

होली का त्योहार बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न भी मनाया। बुराई, अहंकार, इच्छाओं और नकारात्मकता को जलाने वाले रंगों के त्योहार से पहले हर साल शाम को एक पवित्र अलाव जलाया जाता है। होली बंधन, मित्रता, एकता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का त्योहार है। शाम का समय वह समय होता है जब अलाव की रोशनी से बुराई के खत्म होने का संकेत मिलता है। अगली सुबह रंगों से खेलने का दिन है, दोस्ती और खुशी का जश्न मनाते हैं, जिसमें बहुत सारे गायन और नृत्य शामिल हैं।


होली का धार्मिक महत्व

होली का धार्मिक महत्व

होली का धार्मिक महत्व भी है। होली में रंगों के साथ खेलने का महत्व भगवान कृष्ण से जुड़ा है, जो गहरे रंग के थे और अपनी माँ से शिकायत करते थे कि सभी गोपियाँ और राधा का रंग गोरा है फिर वो क्यों सांवले हैं। गोपियाँ कृष्ण का मज़ाक उड़ाती थीं, इसलिए उनकी माँ ने उनसे कहा कि वे  गोपियों और राधा को अपने मनचाहे रलग में रंग सकते हैं।इस तरह होली पर रंगों से खेलने की परंपरा चली आ रही है। यह मजेदार और जीवंत होली एक बहुत प्रसिद्ध परंपरा है जो भगवान कृष्ण के लिए प्रसिद्ध मथुरा वृंदावन में ब्रज और होली समारोह में मनाई जाती है।

कैसे मनाते हैं होली

होलिका दहन के दिन एक पवित्र अग्नि जलाई जाती जिसमें सभी तरह की बुराई, अंहकार और नकरात्म उर्जा को जलाया जाता है। अगले दिन, लोग अपने प्रियजनों को रंग लगाकर त्योहार की शुभकामनाएं देते हैं साथ ही नाच, गाने और स्वादिष्ट व्यंजनों के साथ इस पर्व का मजा लेते हैं।  यह एक ऐसा दिन है जब सभी पुरुष और महिला स्वतंत्र रूप से एक दूसरे को रंग देते हैं। यह ‘क्षमा करने और भूलने का दिन’ है, इस दिन सब पुराने गिले-शिकवे, लड़ाई-झगड़े भुला कर दोस्ती नए सिरे से शुरु करते हैं।  यह पारंपरिक पेय का आनंद लेने का समय भी होता है। दूध से बने पारंपरिक पेय और होली पर इसका सेवन किया जाता है। इसे कई स्थानों पर स्वागत पेय या प्रसाद के रूप में भी परोसा जाता है। गुझिया, लड्डू, पकोड़े, हलवा और पूड़ी इत्यादि जैसी शानदार मिठाइयाँ और व्यंजन इस उत्सव का एक अभिन्न हिस्सा होंते हैं क्योंकि कोई भी भारतीय त्यौहार भोजन के भव्य प्रसार के बिना अधूरा होता है।