DHWAJ TEMPLE , PITHORAGARH !! (ध्वज मंदिर , पिथौरागढ़ !!)
पिथौरागढ़ जिले के मुख्यालय से 20 किलोमीटर की दूरी पर सतगड़ नामक जगह से 4 किमी दूर हिमराज के गोद में स्थित “धवज मंदिर” पहाड़ की चोटी पर शिखर पर स्थित है । डीडीहाट मार्ग पर पिथौरागढ़ से 18 किमी. की दूरी पर “टोटानौला” नाम स्थल है । इस स्थल से 3 किमी. लम्बी कठिन चढ़ाई चढ़ने पर यह प्रसिद्ध मन्दिर स्थित है । “ध्वज मंदिर” पिथौरागढ़ के पास स्थित एक प्रसिद्ध मंदिर है । यह मंदिर समुद्री तल 2100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और शक्तिशाली हिमालय पर्वतमाला की बर्फ से ढंकी चोटियों का मनमोहक दृश्य प्रस्तुत करती है । यह मंदिर हिंदू भगवान शिव को समर्पित है और साथ ही साथ यह मंदिर देवी जयंती माता को समर्पित है जो स्थानीय लोगों द्वारा पूजी जाती हैं । मुख्य मंदिर से 200 फुट नीचे भगवान शिव का एक गुफा मंदिर स्थित है ।
इस मंदिर की स्थापना के बारे में कुछ किंवदंतिया कही जाती है | एक किंवदंती यह है कि जो कहती है कि शिव के नाम पर इस स्थान का नाम ‘धवजा’ रखा गया था |
यह भी कहा जाता है कि लगभग 50 फीट गुफा में लंबे समय तक , इस स्थान में भगवान शिव की उपस्थिति थी इसलिए यह जमीन “खण्डनाथ” के साथ भी जुडी हुई है।
यदि आप पिथौरागढ़ आये तो सतगड़ (कनालीछीना) में स्थित “ध्वज मंदिर” के दर्शन जरुर करे |
MOSTAMANU TEMPLE , PITHORAGARH (मोस्टामानू मंदिर , पिथौरागढ़)
मोस्टामानू मंदिर , पिथौरागढ़ शहर के सबसे दिव्य स्थलों में से एक है । यह मंदिर मुख्य पिथौरागढ़ शहर से लगभग 6 किमी की दूरी पर पिथौरागढ़ किले के नजदीक स्थित है । यह मंदिर भगवान मोस्ता को समर्पित है , जो कि इस क्षेत्र के देवता के रूप में माने जाते है | भगवान मोस्ता के भक्त दूर दूर से यात्रा करते हुए देवता की पूजा करते है और समृद्धि और कल्याण के रूप में आशीर्वाद प्राप्त करते हैं | भगवान मोस्ता की दिव्य उपस्थिति का जश्न मनाने के लिए अगस्त-सितम्बर के महीने में एक स्थानीय मेले का भी आयोजन किया जाता है , जिसमे अत्यधिक संख्या में भक्त , यात्री , पर्यटक आदि शामिल होते है | इस पहाड़ी के मंदिर से पूरे शहर और ऊंची घाटी का एक मंत्रमुग्ध दृश्य प्रदर्शित होता है । मंदिर का परिसर बड़ा है और आप यहाँ कुछ ख़ास समय बिता सकते हैं । मंदिर का निर्मल वातावरण , शरीर और आत्मा को अत्यंत शान्ति पहुँचता है |
KAMAKHYA DEVI TEMPLE , PITHORAGARH !! कामख्या देवी मंदिर , पिथौरागढ़
कामख्या देवी मंदिर पिथौरागढ़ जिले से 10 km दूर “कसुली” नामक स्थान पर स्थित है और यह स्थान सुंदर चोटियों से घिरा हुआ है । “कामख्या देवी” के मंदिर की स्थापना 1972 में की गई थी | कामख्या देवी मंदिर का निर्माण मदन शर्मा और उनके परिवार के द्वारा किया गया है | कामाख्या देवी को नारीत्व के प्रतीक के रूप में भी जाना जाता है । एक छोटे से मंदिर के रूप में शुरू हुआ इस मंदिर का सफ़र आज स्थानीय लोगो के प्रयास से बेहद सुन्दर और विशाल मंदिर में तब्दील हो गया है | इस मंदिर कि विशेषता यह है कि यह उत्तराखंड में कामख्या देवी का सिर्फ एक मात्र मंदिर है | लोगो का विश्वास है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने से लोगो की सारी मनोकामना पूर्ण हो जाती है | कामख्या देवी का मुख्य मंदिर असाम गुवहाटी में स्थित है | यह पुरे उत्तराखंड में प्रमुख है | इस मंदिर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि जो भी व्यक्ति इस मंदिर में मन्नत लेके आता है तो उसकी मनोकामना पूर्ण हो जाती है |
यह मंदिर धार्मिक स्थल के साथ पर्यटक स्थल के रूप में भी अपनी पहचान बना रहा है | इस स्थान से पिथौरागढ़ का जो दृश्य दिखता है वह बहुत ही अद्भुत है | अपने नैसर्गिक सौन्दर्य से आज यह बाहर से आने वाले पर्यटकों के साथ-साथ स्थानीय लोगो को भी खूब लुभा रहा है | माता कामख्या का दरबार सिर्फ धार्मिक महत्ता का ही नहीं , पर्यटक के क्षेत्र में भी प्रमुख है | इस स्थान में आकर धार्मिक आस्था पूर्ण हो जाती है |
हाट कालिका मंदिर , गंगोलीहाट , पिथौरागढ़ !! (HAT KALIKA TEMPLE, GANGOLIHAAT)
पिथौरागढ़ जिले के गंगोलीहाट क्षेत्र में स्थित हाट कलिका का मंदिर भव्य आस्था एवम् विश्वास का मंदिर है | यह मंदिर घने देवदार के जंगलों के बीच स्थित है | इस मंदिर में दूर दूर से लोग आकर देवी काली माता के चरणों में मन्नते मांगते है | गंगोलीहट में स्थित हाट कालिका मंदिर के निवास के बारे में पुराणों में भी उल्लेख मिलता है | प्राचीन हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार गुरु शंकराचार्य ने महाकली का शाक्तिपीठ स्थापित करने के लिए इस जगह का चयन किया था । यह माना जाता है कि देवी काली ने पश्चिम बंगाल से इस जगह को अपने घर स्थानांतरित कर दिया था और तब से इस क्षेत्र में लोकप्रिय देवी के रूप में पूजी जाती है। गुरु अदी शंकराचार्य द्वारा स्थापित यह शक्तिपीठ हजार वर्ष से अधिक पुराना है | देवी की शक्ति के अनुसार यह माना जाता है कि प्राचीन काल से इस मंदिर स्थल पर एक सतत पवित्र आग जलती है। आधुनिक समय में , संत जंगम बाबा ने मंदिर स्थल पर वर्षों से प्रार्थना की और एक दिन देवी उनके सपनों में आई और उनसे इस स्थान में एक मंदिर बनाने के लिए कहा इसलिए वर्तमान मंदिर के निर्माण का श्रेय “जंगम बाबा” को जाता है ।
NAKULESHWER TEMPLE, PITHORAGARH !! (नकुलेश्वर मंदिर , पिथोरागढ़)
नकुलेश्वर मंदिर एक विख्यात धार्मिक स्थल अर्थात मंदिर है , जो की पिथौरागढ़ शहर से 4 किमी दूरतथा शिलिंग गांव से 2 किमी दूर स्थित है । ‘नकुलेश्वर’ शब्द “नकुल” और “ईश्वर” दो शब्दों का मेल है। महिषासुर मर्दिनी की “नकुल” की मूर्ति शक्तिशाली हिमालय से सम्बंधित है , तथा ईश्वर शब्द‘भगवान’ के लिए प्रयुक्त किया गया है इसलिए पूर्ण रूप से यह मंदिर हिमालय के देवता भगवान शिव की ओर संकेत करता है । कहावत के अनुसार, हिंदू महाकाव्य महाभारत के दो पौराणिक चरित्रों पांडवों अर्थात् नकुल और सहदेव ने इस मंदिर का निर्माण किया गया था।
किदवंतियो के अनुसार महाभारत के समय में युद्ध के दौरान पांडवो के चौथे नंबर के भाई नकुल इस स्थान पर अपनी छावनी सहित ठहरे थे | उन्होंने इस मंदिर में स्थित “शिवलिंग” कि स्थापना की थी | तभी से इस मंदिर को नकुलेश्वर महादेव मंदिर के नाम से जाना जाता है | यह मंदिर खजुराहो स्थापत्य शैली में बनाया गया है तथा इसमें शिव-पार्वती, उमा- वासुदेव, नौवर्ग, सूर्य, महिषासुर मर्दिनी, वामन, करमा और नरसिंहसमेत 38 विभिन्न हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं , जो कि पत्थरो से बनी है | नकुलेश्वर महादेव मंदिर का अपना अलग ही महत्व है वैसे तो प्रतिवर्ष इस मंदिर में श्रधालुओ की भीड़ लगी रहती है लेकिन विशेषकर श्रावण के पवित्र महीने में इस स्थान में शिवजी की पूजा अर्चना करने के लिए शिव भक्त लम्बी-लम्बी कतार में खड़े रहते है |इस मंदिर का पिथौरागढ़ जिले के इतिहास के साथ भी सम्बन्ध है |
GURNA MATA TEMPLE OF PITHORAGARH !! (गुरना माता मंदिर , पिथौरागढ़ !!)
गुरना माता का मंदिर टनकपुर राष्ट्रीय राजमार्ग से पिथौरागढ़ जिले से 13 कि.मी. कि दुरी पर स्थित है | इस मंदिर का वास्तविक नाम “पाशन देवी” है , लेकिन यह मंदिर गुरना गाँव के निकट होने के कारण “गुरना माता” के रूप में प्रसिद्ध है | 1952 से पहले इस मंदिर का छोटा रूप सड़क के निचे उपस्थित था , जिसे क्षेत्र के ग्रामीणों और अन्य भक्त के द्वारा पूजा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था | 1950 मेंपिथौरागढ़ क्षेत्र के यातायात को जोड़ने के बाद , इस रास्ते में लगातार दुर्घटनाओ के कारण यात्रियों में डर था | तब मंदिर मंदिर के पुजारी का एक सपना था कि गुरना देवी माता के मंदिर को सड़क के किनारे स्थापित करके भक्तो को आशीर्वाद दिया जाएगा और जिससे की दुर्घटनाओं की संख्या में रोक लगेगी और तुरंत ही मंदिर का निर्माण सड़क के किनारे किया गया जिससे कि घटनाओं में रोक लग गई |
माता गुरना के बारे में इस तरह का विश्वास है कि इच्छा पूरी होने पर भक्त गुरना देवी मंदिर के दर्शन एवम् पूजा करने के लिए आते है | इस मंदिर की मान्यता जम्मू कश्मीर में स्थित विख्यात “वैष्णो देवी मंदिर” के सामान है | मुख्य राष्ट्रीय राजमार्ग में इस मंदिर की स्थापना होने के कारण , भक्त हर दिन गुरना माता मंदिर के दर्शन से धन्य हो जाता है । मंदिर के पास ठंडे पानी का वसंत है , जिसे भक्त संस्कार के रूप में स्वीकार करते हैं | यह मंदिर यात्रियों के लिए एक विश्वास का केंद्र है क्युकी गुरना माता मंदिर में जो व्यक्ति देवी की सच्चे दिल से पूजा करता है , उसकी इच्छा पूरी तरह से पूरी हो जाती है | पिथौरागढ़ क्षेत्र में इस मंदिर का अत्यधिक महत्व है |
KAPILESHWAR MAHADEV TEMPLE (PITHORAGARH)!! (कपिलेश्वर महादेव मंदिर , पिथौरागढ़ !!)
कपिलेश्वर महादेव मंदिर टकौरा एवं टकारी गांवों के ऊपर “सोर घाटी” यानी “पिथौरागढ़ शहर “में स्थित एक विख्यात मंदिर है । कपिलेश्वर महादेव मंदिर पिथौरागढ़ के ऐंचोली ग्राम के ऊपर एक रमणीक पहाड़ी पर स्थित है । 10 मीटर गहरी गुफा में स्थित यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है । एक पौराणिक कहावत के अनुसार , इस स्थान पर भगवान विष्णु के अवतार महर्षि कपिल मुनि ने तपस्या की थी इसीलिए इसे “कपिलेश्वर” के नाम से जाना गया । इस गुफा के भीतर एक चट्टान पर शिव , सूर्य व शिवलिंग की आकृतियाँ मौजूद हैं । यह मंदिर शहर से केवल 3 किमी दूर है तथा यह मंदिर हिमालय पर्वतमाला का लुभावना दृश्य प्रस्तुत करता है ।
मुख्य मंदिर तक पहुंचने के लिए लगभग 200 से अधिक सीढ़ियों तक चढ़ना पड़ता है । पिथौरागढ़ शहर के निकट एक और गुफा मंदिर है जो कि भगवान शिव को समर्पित है । यहां पर पूर्व काल में एक मूर्ति भी स्थापित थी | उस मूर्ति की पौराणिक कथा कुछ इस प्रकार है कि इस क्षेत्र के निकट गाँव की एक गाय प्रति दिन उस मूर्ति पर दूध विसर्जित करती थी लेकिन एक दिन अचानक ग्वाले ने गाय को मूर्ति पर दूध विसर्जित करते समय देख लिया और उसने क्रोध में मूर्ति को खंडित कर दिया । अगले दिन वहां जाने पर एक गुफा दिखाई दी और माना जाता है कि गुफा से एक सुरंग भी जुड़ी हुई है , जहाँ से “सोर घाटी” यानी “पिथौरागढ़“ का बड़ा ही मनमोहक एवं विस्तृत स्वरूप दिखाई देता है ।
शिवरात्रि के दिन इस मंदिर पर भव्य मेले का आयोजन और रात्रि में जागरण किया जाता है । इस मंदिर के बारे में यह मान्यता है कि जो भक्त सच्चे मन से इस मंदिर में पूजा और आराधना करता है भगवान उसकी हर मनोकामना पूर्ण करते है |
मां चंडीका घाट (Chandika Ghat) पिथौरागढ़ :-
Uttarakhand is called the land of goddesses. In the high mountain range here, the goddess is believed to be from ancient times. Where human beings are still very difficult to reach even today, temples have been established in ancient times. Devotees come from far away to fulfill their wishes here in such temples. In the Northern direction of city Pithoragarh district, the temple of Maa Chandika is situated. It is considered to be the ultimate form of Mahashakti Durga, in its description present in the Markandeya Purana. There are two legends related to the establishment of the Maa Chandika Ghat Temple; one is of Sangram Singh Mudela of the Kusail village and the other is of Chamu Singh Waldia of Paun village. As far as the legends is concerned both of them are said to be the ones who established the temple in their respective stories. It is said that in the past, people of many villages took cattle from their village.
उत्तराखंड को देवी की भूमि कहा जाता है। यहां उच्च पर्वत श्रृंखला में, देवी का वास प्राचीन काल से माना जाता है। जहां मनुष्य आज भी पहुंचने में बहुत मुश्किल हैं, प्राचीन काल में मंदिर स्थापित किए गए हैं। भक्त इस तरह के मंदिरों में अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए दूर से दूर आते हैं। शहर पिथौरागढ़ जिले की उत्तरी दिशा में, मां चंडीका का मंदिर स्थित है। इसे महाशक्ति दुर्गा का अंतिम रूप माना जाता है, जो मार्कंडेय पुराण में मौजूद है। मां चंडीका घाट मंदिर की स्थापना से संबंधित दो किंवदंतियों हैं; एक कुशैल गांव के संग्राम सिंह मुदेला का है और दूसरा पाण गांव के चामु सिंह वाल्डिया का है। जहां तक किंवदंतियों का संबंध है, उन दोनों को कहा जाता है जिन्होंने मंदिर को अपनी संबंधित कहानियों में स्थापित किया था।
यदि आप पिथौरागढ़ आये तो “मां चंडीका घाट मंदिर” के दर्शन जरुर करे |
लोड़ी मलेनाथ स्वामी पिथौरागढ़:-
भोले बाबा का ही एक मंदिर मलेनाथ स्वामी का है जिसे लोड़ी के नाम से जाना जाता है, इस मंदिर तक जाने के लिए बड़ी कठिन चढाई चढ़नी पड़ती है.यहाँ प्रत्येक वर्ष मेला लगता है जिसमे बहुत दूर दूर से श्रद्धालु आते हैं और भोले बाबा के दर्शन करते हैं तथा मनचाही मुरादे पाते हैं.यहाँ आने से पहले भक्तों को 7 दिन तक केवल शुद्ध एवं शाकाहारी भोजन ही लेना चाहिए|
यदि आप पिथौरागढ़ आये तो ख्वांतड़ी ग्राम (कनालीछीना) में स्थित “लोड़ी मलेनाथ स्वामी मंदिर” के दर्शन जरुर करे |
बाबा बेतालेस्वर मंदिर पिथौरागढ:
काशीन्धुरा से कुछ ही दूरी पर कनालीछीना के सिरोली ग्राम में भोले बाबा का एक और प्रशिद्ध मंदिर है जो बाबा बेतालेस्वर के नाम से मशहूर है यहाँ भी हजारों भक्तगण दूर दूर से वीरभद्र महादेव के दर्शन करने आते हैं यहाँ बाबा बेतालेस्वर अपने हर एक भक्त को मनचाहा वरदान देते हैं|
यदि आप पिथौरागढ़ आये तो सिरोली (कनालीछीना) में स्थित “बाबा बेतालेस्वर मंदिर” के दर्शन जरुर करे |
सिराकोट मंदिर डीडीहाट :-
डीडीहाट एक शांत पर्यटन स्थल है जो कि पिथौरागढ़ जिले में स्थित है | डीडीहाट पर्यटन स्थल होने के साथ-साथ एक नगर पंचायत है एवम् डीडीहाट पिथौरागढ़ शहर से 54 कि.मी. की दुरी पर स्थित है | डीडीहाट समुन्द्र तल से 1725 मीटर की ऊँचाई पर “दिग्तढ़” “Digtarh” नामक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है और इस पहाड़ी की चोटी के निचे चरमगढ़ व भदीगढ़ नामक नदियां बहती हैं | इस नगर के निकट सुंदर “हाट घाटी” स्थित है ,जहाँ भगवान शिव को समर्पित “सीराकोट”नामक एक प्रसिद्ध मंदिर स्थित है । डीडीहाट की मुख्य भाषा हिंदी ,कुमाउनी एवम् संस्कृत है तथा अधिकाँश गाँव में रहने वाले लोग हिंदी और कुमाउनी भाषा में बातचीत करते है
समय के अनुसार डीडीहाट क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से सीराकोट के रिका (Raika)मल्ला राजाओंके द्वारा शासित था | भगवान मलय नाथ का प्राचीन सिराकोट मंदिर रिका (Raika) राजाओं द्वारा निर्मित किया गया | राजा हरी मल्ला के समय तक , यह क्षेत्र नेपाल के डोती साम्राज्य के आधीन था | बाद में 1581 ईस्वी में चंद वंश के शासक “रूद्र चंद” ने नेपाल के डोती साम्राज्य को युद्ध में पराजित कर इस क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले लिया और अभी भी वर्तमान समय में डीडीहाट क्षेत्र में प्राचीन किलेऔर मंदिरों के कुछ अवशेष मौजूद है |
डीडीहाट 1947 में सयुंक्त प्रांत (United Provinces) के अल्मोड़ा जिले में एक तहसील था , जब भारत ने ब्रिटेन से स्वतन्त्रता जीती थी | डीडीहाट तहसील को अल्मोड़ा जिले के अन्य उत्तर-पूर्वी हिस्सों के साथ , 1960 में बना पिथौरागढ़ जिले के साथ स्थानांतरित कर दिया गया | डीडीहाट तहसील के 298 गाँवो को स्थानांतरित कर 2001-2011 के दौरान एक नया तहसील “बेरीनाग” बनाया गया | डीडीहाट क्षेत्र को 15 अगस्त 2011 में मुख्य मंत्री के द्वारा एक नए जिले के रूप में घोषित किया गया हालांकि , अभी तक जिले का आधिकारिक तौर पर गठन नहीं हुआ है |यदि आप पिथौरागढ़ आये तो डीडीहाट में स्थित “सिराकोट मंदिर” के दर्शन जरुर करे |
पाताल भुवनेश्वर ( PATAL BHUVANESHWER
पाताल भुवनेश्वर मंदिर पिथौरागढ़ जनपद उत्तराखंड राज्य का प्रमुख पर्यटक केन्द्र है। ( पाताल भुवनेश्वर का इतिहास और मान्यताये )
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के प्रसिद्ध नगर अल्मोड़ा से शेराघाट होते हुए 160 किलोमीटर की दूरी तय कर पहाड़ी वादियों के बीच बसे सीमान्त कस्बे गंगोलीहाट में स्थित है |पाताल भुवनेश्वर देवदार के घने जंगलों के बीच अनेक भूमिगत गुफ़ाओं का संग्रह है | जिसमें से एक बड़ी गुफ़ा के अंदर शंकर जी का मंदिर स्थापित है । यह संपूर्ण परिसर 2007 से भारतीय पुरातत्व विभागद्वारा अपने कब्जे में लिया गया है |
पाताल भुवनेश्वर गुफ़ा किसी आश्चर्य से कम नहीं है।यह गुफा प्रवेश द्वार से 160 मीटर लंबी और 90 फीट गहरी है । पाताल भुवनेश्वर की मान्यताओं के मुताबिक, इसकी खोज आदि जगत गुरु शंकराचार्य ने की थी । पाताल भुवनेश्वर गुफा में केदारनाथ, बद्रीनाथ और अमरनाथ के दर्शन भी होते हैं।
पौराणिक इतिहास पाताल भुवनेश्वर का :-
पुराणों के मुताबिक पाताल भुवनेश्वर के अलावा कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहां एकसाथ चारों धाम के दर्शन होते हों। यह पवित्र व रहस्यमयी गुफा अपने आप में सदियों का इतिहास समेटे हुए है। मान्यता है कि इस गुफा में 33 करोड़ देवी-देवताओं ने अपना निवास स्थान बना रखा है।
पुराणों मे लिखा है कि त्रेता युग में सबसे पहले इस गुफा को राजा ऋतूपूर्ण ने देखा था , द्वारपार युग में पांडवो ने यहः शिवजी भगवान् के साथ चौपाड़ खेला था और कलयुग में जगत गुरु शंकराचार्य का 722 ई के आसपास इस गुफा से साक्षत्कार हुआ तो उन्होंने यहः ताम्बे का एक शिवलिंग स्थापित किया | इसके बाद जाकर कही चंद राजाओ ने इस गुफा को खोजा | आज के समय में पाताल भुवानेश्वर गुफा सलानियो के लिए आकर्षण का केंद्र है | देश विदेश से कई सैलानी यह गुफा के दर्शन करने के लिए आते रहते है |
पाताल भुवनेश्वर गुफा के अन्दर भगवान गणेश जी का मस्तक है :-
हिंदू धर्म में भगवान गणेशजी को प्रथम पूज्य माना गया है। गणेशजी के जन्म के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि एक बार भगवान शिवने क्रोध में गणेशजी का सिर धड़ से अलग कर दिया था, बाद में माता पार्वतीजी के कहने पर भगवान गणेश को हाथी का मस्तक लगाया गया था, लेकिन जो मस्तक शरीर से अलग किया गया, माना जाता है कि वह मस्तक भगवान शिवजी ने पाताल भुवानेश्वर गुफा में रखा है |
पाताल भुवनेश्वर की गुफा में भगवान गणेश कटे शिलारूपी मूर्ति के ठीक ऊपर 108 पंखुड़ियों वाला शवाष्टक दल ब्रह्मकमल के रूप की एक चट्टान है।
इससे ब्रह्मकमल से पानी भगवान गणेश के शिलारूपी मस्तक पर दिव्य बूंद टपकती है। मुख्य बूंद आदिगणेश के मुख में गिरती हुई दिखाई देती है। मान्यता है कियह ब्रह्मकमल भगवान शिव ने ही यहां स्थापित किया था।
पाताल भुवनेश्वर गुफा के अन्दर रखी चीजों का रहस्य :-
इस गुफाओं में चारों युगों के प्रतीक रूप में चार पत्थर स्थापित हैं।
इनमें से एक पत्थर जिसे कलियुग का प्रतीक माना जाता है, वह धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा है। यह माना जाता है कि जिस दिन यह कलियुग का प्रतीक पत्थर दीवार से टकरा जायेगा उस दिन कलियुग का अंत हो जाएगा।
( पाताल भुवनेश्वर का इतिहास और मान्यताये )
इस गुफा के अंदर केदारनाथ, बद्रीनाथ और अमरनाथ के भी दर्शन होते हैं। बद्रीनाथ में बद्री पंचायत की शिलारूप मूर्तियां हैं | जिनमें यम-कुबेर, वरुण, लक्ष्मी, गणेश तथा गरूड़ शामिल हैं। तक्षक नाग की आकृति भी गुफा में बनी चट्टान में नजर आती है। इस पंचायत के ऊपर बाबा अमरनाथ की गुफा है तथा पत्थर की बड़ी-बड़ी जटाएं फैली हुई हैं। इसी गुफा में कालभैरव की जीभ के दर्शन होते हैं। इसके बारे में मान्यता है कि मनुष्य कालभैरव के मुंह से गर्भ में प्रवेश कर पूंछ तक पहुंच जाए तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
मान्यता पाताल भुवनेश्वर गुफा के अन्दर बनी आकृति की
गुफ़ा में घुसते ही शुरुआत में (पाताल के प्रथम तल) नरसिम्हा भगवान के दर्शन होते हैं।
कुछ नीचे जाते ही शेषनाग के फनों की तरह उभरी संरचना पत्थरों पर नज़र आती है |मान्यता है कि धरती इसी पर टिकी है । गुफ़ाओं के अन्दर बढ़ते हुए गुफ़ा की छत से गाय की एक थन की आकृति नजर आती है । यह आकृति कामधेनु गाय का स्तन है कहा जाता था की देवताओं के समय मे इस स्तन में से दुग्ध धारा बहती है। कलियुग में अब दूध के बदले इससे पानी टपक रहा है।
इस गुफा के अन्दर आपको मुड़ी गर्दन वाला गौड़(हंस) एक कुण्ड के ऊपर बैठा दिखाई देता है |यह माना जाता है कि शिवजी ने इस कुण्ड को अपने नागों के पानी पीने के लिये बनाया था। इसकी देखरेख गरुड़ के हाथ में थी। लेकिन जब गरुड़ ने ही इस कुण्ड से पानी पीने की कोशिश की तो शिवजी ने गुस्से में उसकी गरदन मोड़ दी।
(हंस की टेड़ी गर्दन वाली मूर्ति । ब्रह्मा के इस हंस को शिव ने घायल कर दिया था क्योंकि उसने वहां रखा अमृत कुंड जुठा कर दिया था।)
यदि आप पिथोरागढ़ आये तो गंगोलीहाट में स्थित “पाताल भुवनेश्वर मंदिर “के दर्शन जरुर करे |
Rautamad Dev (Chaubati)
केदारनाथ मंदिर – साक्षी ऐतिहासिक मंदिर
पर्यटकों के बीच अनुकूलित अलौकिक उद्धरण
ज्योतिर्लिंग या ब्रह्मांडीय प्रकाश में से एक के रूप में जाना जाता है, उत्तराखंड में यह प्रसिद्ध मंदिर भगवान शिव का है जिसे 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में स्वयं आदि शंकराचार्य ने बनाया था। यह मंदाकिनी नदी के किनारे पर स्थित है, जो अभी भी बहती है और तब से बारहमासी है।केदारनाथ, भक्तों के लिए एक लोकप्रिय स्थल है और उत्तराखंड के कई ऐतिहासिक मंदिरों में से एक है जो शैवों के लिए एक महत्वपूर्ण मंदिर के रूप में देखा जाता है। मंदिर लगभग 3583 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, और ऋषिकेश शहर से यह 223 किमी दूर है। सूत्रों के अनुसार, मंदिर 1000 साल पुराना है।
मंदिर की वास्तुकला एक चमत्कार है। एक बड़े आयताकार ढांचे पर, पत्थर की विशाल स्लैब की व्यवस्था की गई है, और बेस्पोक गर्भगृह और मंडापा को वास्तुशिल्प चालाकी के बारे में सही से घमंड है।
समय: सुबह 4:00 – 9:00 बजे
पता: केदारनाथ, उत्तराखंड 246445
तुंगनाथ मंदिर – भगवान शिव का सबसे ऊंचा मंदिर
सर्द और बर्फीले चंद्रनाथ पर्वत में बसे, तुंगनाथ मंदिर उत्तराखंड के अन्य शिव मंदिरों के साथ-साथ दुनिया के साथ-साथ उत्तराखंड जिले के “उच्चतम पंच केदार मंदिर” में भगवान शिव का सबसे ऊंचा मंदिर है।
पंच केदारों में पाँच केदार हैं; उनमें से, तुंगनाथ क्रम में तीसरे स्थान पर है। जब उत्तराखंड में इस ऐतिहासिक मंदिर की ऊंचाई की बात आती है, तो यह केदारनाथ मंदिर की तरह समुद्र तल से 3680 की ऊँचाई पर और लगभग 1000 साल पुराना है।
समय: सुबह 6:00 से शाम 7:00 तक
पता: रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड 246419
बालेश्वर मंदिर – सुंदर पत्थर की नक्काशी
भगवान शिव महाबलेश्वरगेट के पुराने शहर में स्थित है
उत्तराखंड में यह मंदिर चंपावत शहर के अंदर स्थित है, जिसे बालेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह ऐतिहासिक मंदिर चांद राजवंश की एक जीवित स्मृति है, जो पत्थर की नक्काशी से बने मंदिर का प्रतीक बनने के लिए बनाया गया है।
कोई भी लिखित रिकॉर्ड सही समय और सदी साबित नहीं कर रहा है, लेकिन यह विश्वास है कि मंदिर 10-12 शताब्दी के बीच कहीं बनाया गया था ए.डी.
समय: सुबह 9 बजे से 11.30 बजे और शाम 5 बजे से 8.30 बजे तक।
पता: NH 125, लोहाघाट रेंज, चंपावत, उत्तराखंड 262523
कटारमल सूर्य मंदिर – अद्भुत वास्तुकला डिजाइन देखें
अल्मोड़ागेट में सूर्य मंदिर स्वनिर्धारित उद्धरण
माना जाता है कि 9 वीं शताब्दी में उत्तराखंड में कटारमल सूर्य मंदिर का निर्माण कत्यूरी राजा द्वारा कराया गया था। उत्तराखंड का यह प्रसिद्ध मंदिर निश्चित रूप से आपको वास्तुशिल्प के ऐसे बेहतरीन डिजाइन से रूबरू कराएगा, जो उस समय के कारीगरों द्वारा बनाया गया है। समुद्र तल से 2,116 मीटर की ऊँचाई पर स्थित, आप अल्मोड़ा से इस मंदिर तक आसानी से पहुँच सकते हैं।
नक्काशी प्राचीन शैली की वास्तुकला का एक रूप है जिसे आप इस क्षेत्र के प्रत्येक मंदिर में ढूंढते हैं, और इस मंदिर में भी, लकड़ी के पैनलों और दरवाजों पर इस तरह के डिजाइन जटिल रूप से उकेरे जाते हैं। कोणार्क सूर्य मंदिर के बाद, यह दूसरा सबसे सुंदर मंदिर है।
समय: सुबह 6 बजे -12 बजे और शाम 3 बजे -7 बजे
पता: अधेली सुनार, उत्तराखंड 263643
इस आधुनिक तीर्थ स्थल पर बाबा नीब करौली महाराज का आश्रम है । प्रत्येक वर्ष की 15 जून को यहां पर बहुत बडे मेले का आयोजन होता है, जिसमें देश-विदेश के श्रद्धालु भाग लेते हैं । इस स्थान का नाम कैंची मोटर मार्ग के दो तीव्र मोडों के कारण रखा गया है । कैंची धाम उत्तराखंड राज्य में नैनीताल से लगभग 65 किलोमीटर दूर स्थित है। बताया जाता है कि 1961 में बाबा यहां पहली बार आए थे और उन्होंने 1964 में एक आश्रम का निर्माण कराया था, जिसे कैंची धाम के नाम से जाना जाता है। नीम करौली बाबा सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपने चमत्कार के कारण जाने जाते हैं।
लाखामंडल मंदिर – साक्षी शिवलिंग का जादू
चकरातागेट में लखामंडल मंदिर अनुकूलित भाव
उत्तराखंड में लाखामंडल मंदिर चकराता क्षेत्र में है। देवभूमि के अन्य मंदिरों की तरह यह मंदिर भी भगवान शिव का है। छोटे माने जाने वाले कई अन्य शिव मंदिरों के अवशेष इस मंदिर के परिसर में मौजूद हैं।
इस मंदिर में जिस शिवलिंग, देवता की पूजा की जाती है, वह ग्रेफाइट से बना होता है। जैसे ही भक्तों द्वारा अनुष्ठान के एक भाग के रूप में पानी डाला जाता है, शिवलिंग चमक उठता है।
समय: सुबह 5 बजे – 9 बजे
पता: लाखा मंडल, उत्तराखंड 248124
आदि बद्री – 16 मंदिरों का समूह
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आदि बद्री मंदिर उत्तराखंड के मंदिरों में लोकप्रिय पंच बद्री का एक हिस्सा है। यदि आप उत्तराखंड के लिए अपनी धार्मिक छुट्टी की योजना बना रहे हैं तो आपको आदि बद्री मंदिर अवश्य जाना चाहिए। बद्रीनाथ जाने से पहले भगवान विष्णु तीन युगों अर्थात् सत्य, त्रेता और द्वापर के दौरान आदि बद्री में रहे थे। आदि गुरु शंकराचार्य इन मंदिरों के निर्माता हैं। प्राथमिक मंदिर नारायण का है जो भगवान विष्णु की एक काले पत्थर की मूर्ति है।
समय: सुबह 6 बजे से शाम 7 बजे तक
पता: रानीखेत रोड पर कर्णप्रयाग से 18 किलोमीटर
अनुसूया देवी मंदिर – देवी की महिमा को महसूस करें
अनुसूया देवी मंदिर देवी सती को समर्पित है और चमोली, उत्तराखंड के मंदिरों में सबसे लोकप्रिय मंदिरों में से एक है। हिमालय में स्थित है जो शिष्यों के बीच मुख्य आकर्षण है। मंदिर में जाने का सबसे अनुकूल समय दिसंबर के महीने के दौरान है जब दत्तात्रेय जयंती भव्यता के साथ मनाई जाती है। इस दौरान, आपको भारी संख्या में तीर्थयात्री भजन और बिजली के दीपक जलाते हुए दिखाई देंगे।
समय: सुबह, दोपहर और शाम
पता: गोपेश्वर में, चोपता से 30 कि.मी.
अगस्तमुनि – ऋषि अगस्त्य को समर्पित
अगस्तमुनि मंदिर रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है और चार धाम मार्ग, हेलीपैड, तीर्थ मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। यदि आप हेलीकॉप्टर से जा रहे हैं तो केदारनाथ से अगस्तमुनि मंदिर तक की यात्रा में 45 मिनट का समय लगेगा। आप संत अगस्ता के कुंड को देख रहे होंगे जो साक्षी के लिए एक सुंदर दृश्य है। अगस्तमुनि मंदिर जाने से पहले आपको इस मंदिर से जुड़ी पौराणिक कथाओं और पौराणिक कथाओं का भी पता चल जाएगा।
समय: पर्यटक दिन में मंदिर जा सकते हैं
पता: रुद्रप्रयाग, केदारनाथ के रास्ते पर
जय मां बधाणगढ़ी मंदिर – देवी काली की शक्ति का गवाह
मंदिर वास्तव में एक महान पर्यटन स्थल है जहाँ मंदिर से आपको उत्तराखंड के प्रसिद्ध शिखरों जैसे त्रिशूल, नंदादेवी, पंचाचूली और कई अन्य सुंदर चोटियों के शानदार दृश्य देखने को मिलेंगे। मंदिर दक्षिण काली और भगवान शिव के लिए प्रसिद्ध है जिसे 8 वीं से 12 वीं शताब्दी के दौरान स्थापित किया गया था। उत्तराखंड में आने वाले सैलानियों के लिए समुद्र के स्तर से 2260 मीटर ऊपर बदनगढ़ी मंदिर बहुत ही आकर्षण का केंद्र है।
समय: सुबह, दोपहर और शाम
पता: ग्वालदम टाउनशिप से 8 किलोमीटर
बद्रीनाथ – छोटा चार धाम की पूजा करें
बद्रीनाथ चार धाम यात्रा या तीर्थयात्रा के लिए प्रसिद्ध है या बड़ी संख्या में भक्तों द्वारा दौरा किया गया मंदिर है। बद्रीनाथ की यात्रा का सबसे अच्छा समय मई, जून, सितंबर और अक्टूबर के महीनों के दौरान है। मंदिर भगवान शिव को समर्पित है जिसे संरक्षक के रूप में स्वीकार किया जाता है। यह मंदिर समुद्र तल से ऊपर अलकनंदा नदी के तट पर लगभग 10300, 827 मीटर ऊंचा है। मंदिर पारंपरिक लकड़ी गढ़वाली वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है।
समय: 30 अप्रैल से अक्टूबर / नवंबर तक
पता: चमोली, गढ़वाल
बागेश्वर
बागेश्वर वह पवित्र स्थान है जहाँ कई मंदिर स्थित हैं जैसे कि चंडिका मंदिर जो भगवान शिव, श्रीहरि मंदिर, गौरी उदियार को समर्पित है जहाँ भगवान शिव की एक गुफा बनी है। त्योहार के समय के दौरान, मंदिरों में भारी संख्या में भक्तों का आना-जाना लगा रहता है, जो आगंतुकों के लिए खुशी और शांति लाता है। हुरका, बौल, छोलिया और झुमला जैसे लोक नृत्य आयोजित किए जाते हैं जो आंखों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं।
समय: पर्यटक दिन में मंदिर जा सकते हैं
पता: कुमाऊँ
बागेश्वर में आप हवाई यात्रा, ट्रेन या बस के माध्यम से भी घूमने के लिए पहुंच सकते हैं। जॉली ग्रांट हवाई अड्डा और पंतनगर हवाई अड्डा से आप लोकल टैक्सी या कैब लेकर बागेश्वर घूमने के लिए पहुंच सकते हैं। ट्रेन से आप देश के अलग-अलग हिस्सों से काठगोदाम में रेलवे स्टेशन पहुंचकर यहां से लोकल टैक्सी या कैब लेकर जा सकते हैं।
बागनाथ मंदिर
बागनाथ मंदिर, उत्तराखंड के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक पर जाकर, आप दो खूबसूरत नदियों सरयू और गोमती के विलय को देखने जा रहे हैं जो वास्तव में देखने के लिए एक अद्भुत स्थल है। बागेश्वर शहर का नाम बाघनाथ भगवान के बागनाथ मंदिर के नाम पर रखा गया है। मंदिर ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में नामित त्रिमूर्ति की शक्ति को समर्पित है जो स्वयं भगवान शिव हैं। आप मंदिर में शिवरात्रि उत्सव के दौरान एक अद्भुत वास्तुकला और सजावट के साथ पीतल की घंटियाँ दिखाते हुए मंदिर की यात्रा कर सकते हैं।
समय: पर्यटक दिन में मंदिर जा सकते हैं
पता: बागेश्वर, कुमाऊं
जागेश्वर धाम
जागेश्वर भगवान सदाशिव के बारह ज्योतिर्लिगो में से एक है। यह ज्योतिलिंग “आठवा” ज्योतिलिंग माना जाता है | इसे “योगेश्वर” के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ कुल 108 छोटे बड़े मन्दिर है जो अनोखी कलाकारी प्रदर्शित करते है ऋगवेद में ‘नागेशं दारुकावने” के नाम से इसका उल्लेख मिलता है। महाभारत में भी इसका वर्णन है । जागेश्वर के इतिहास के अनुसार उत्तरभारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाडियों के कुमाउं क्षेत्र में कत्युरीराजा था | जागेश्वर मंदिर का निर्माण भी उसी काल में हुआ | इसी वजह से मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक दिखाई देती है | मंदिर के निर्माण की अवधि को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा तीन कालो में बाटा गया है “कत्युरीकाल , उत्तर कत्युरिकाल एवम् चंद्रकाल”। अपनी अनोखी कलाकृति से इन साहसी राजाओं ने देवदार के घने जंगल के मध्य बने जागेश्वर मंदिर का ही नहीं बल्कि अल्मोड़ा जिले में 400 सौ से अधिक मंदिरों का निर्माण किया है।
प्राचीन मान्यता के अनुसार जागेश्वर धाम भगवान शिव की तपस्थली है | यहाँ नव दुर्गा ,सूर्य, हमुमान जी, कालिका, कालेश्वर प्रमुख हैं | हर वर्ष श्रावण मास में पूरे महीने जागेश्वर धाम में पर्व चलता है । पूरे देश से श्रद्धालु इस धाम के दर्शन के लिए आते है | इस स्थान में कर्मकांड, जप, पार्थिव पूजन आदि चलता है । यहाँ विदेशी पर्यटक भी खूब आते हैं । जागेश्वर मंदिर में हिन्दुओं के सभी बड़े देवी-देवताओं के मंदिर हैं । दो मंदिर विशेष हैं पहला “शिव” और दूसरा शिव के “महामृत्युंजय रूप” का । महामृत्युंजय में जप आदि करने से मृत्यु तुल्य कष्ट भी टल जाता है । 8 वी ओर 10 वी शताब्दी मे निर्मित इस मंदिर समूहों का निर्माण कत्यूरी राजाओ ने करवाया था परन्तु लोग मानते हैं कि मंदिर को पांडवों ने बनवाया था। लेकिन इतिहासकार मानते हैं कि इन्हें कत्यूरी और चंद शासकों ने बनवाया था । इस स्थल के मुख्य मंदिरों में दन्देश्वर मंदिर, चंडी-का-मंदिर, कुबेर मंदिर, मिर्त्युजय मंदिर , नौ दुर्गा, नवा-गिरह मंदिर, एक पिरामिड मंदिर और सूर्य मंदिर शामिल हैं।महामंडल मंदिर,महादेव मंदिर का सबसे बड़ा मंदिर है, जबकि दन्देश्वर मंदिर जागेश्वर का सबसे बड़ा मंदिर है।
बिनसर महादेव मंदिर
रानीखेत से लगभग 20 किलोमीटर दुरी पर स्थित बिनसर महादेव मंदिर , बेहद रमणीय और अलौकिक है। चारो और देवदार, पाइन और ओक के पेड़ों से घिरा बहुत ही मनभावन दृश्य प्रस्तुत करता है। इस परिसर में अप्रतिम शांति का अहसास होता है। यहाँ आकर आप ध्यान योग का लाभ ले सकते हैं। इस मंदिर की सुंदरता का वर्णन करना शब्दों में सम्भव नहीं है। यह क्षेत्र सम्पूर्ण कुमाऊं के सबसे सुन्दर क्षेत्रों में आता है। यहाँ से हिमालय की चौखम्बा , त्रिशूल, पंचाचूली ,नंदादेवी , नंदा कोट आदि चोटियों का रमणीय दर्शन होते हैं। मौसम साफ रहने की स्थिति में आप केदारनाथ तक दर्शन कर सकते हैं। Swargashram Binsar Mahadev Mandir
यह मंदिर अपनी अप्रतिम वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर में भगवान् गणेश ,माता गौरी और महेशमर्दिनी की मूर्तियां यहाँपॉइंट की अद्भुत मूर्तिकला का परिचय देती हैं। विशेषकर महेशमर्दिनी की मूर्ति में ९वी शताब्दी की नागरीलिपि के साथ वर्णित है। यह मंदिर समुद्रतल से लगभग 2480 मीटर ऊंचाई पर स्थित है।
बिनसर महादेव मंदिर भगवान शिव को समर्पित मंदिर है। किंदवतियों के अनुसार ऐसे पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान एक रात में बनाया था। एक अन्य कहानी व जानकारी के अनुसार इसे राजा पीथू ने अपने पिता बिंदु की याद में बनाया था। इसलिए इस मंदिर को बिन्देश्वर महादेव मंदिर भी कहते हैं। इसके पास एक आश्रम भी स्थित है।
पहले यहाँ एक छोटा सा मंदिर था। सन 1959 में श्री पंचनाम जूना आखाड़ा के ब्रह्मलीन नागा बाबा मोहनगिरी ने इस स्थान पर इस मंदिर का भव्य जीर्णोद्वार कराया गया। बताया जाता है कि वर्ष 1970 से इस मंदिर में अखंड ज्योति जल रही है। महंत 108 श्री महंत रामगिरि जी महाराज इस मंदिर की सम्पूर्ण व्यवस्थाएं देखते हैं। यहाँ श्री शंकर शरण गिरी संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना की गई है। यहाँ बच्चे अध्यन करते हैं। बच्चों को अध्यन में व्यवधान न हो इसलिए यहाँ घंटी बजाना मना है। यहाँ प्रतिवर्ष मई जून में होमात्मक महारुद्र यज्ञ और शिव महापुराण का आयोजन होता है।
नंदा देवी मंदिर
- कुमाऊं क्षेत्र के उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा जिले के पवित्र स्थलों में से एक “नंदा देवी मंदिर” का विशेष धार्मिक महत्व है ।इस मंदिर में “देवी दुर्गा” का अवतार विराजमान है | समुन्द्रतल से 7816 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह मंदिर चंद वंश की “ईष्ट देवी” माँ नंदा देवी को समर्पित है | नंदा देवी माँ दुर्गा का अवतार और भगवान शंकर की पत्नी है और पर्वतीय आँचल की मुख्य देवी के रूप में पूजी जाती है | नंदा देवी गढ़वाल के राजा दक्षप्रजापति की पुत्री है , इसलिए सभी कुमाउनी और गढ़वाली लोग उन्हें पर्वतांचल की पुत्री मानते है | कई हिन्दू तीर्थयात्रा के धार्मिक रूप में इस मंदिर की यात्रा करते है क्यूंकि नंदा देवी को “बुराई के विनाशक” और कुमुण के घुमन्तु के रूप में माना जाता है | इसका इतिहास 1000 साल से भी ज्यादा पुराना है । नंदा देवी का मंदिर , शिव मंदिर की बाहरी ढलान पर स्थित है |पत्थर का मुकुट और दीवारों पर पत्थर से बनायीं गयी कलाकृति इस मंदिर की शोभा को अत्यधिक बढाते है | नन्दा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं | नंदा देवी को नव दुर्गा के रूप में से एक बताया गया है |भविष्यपुराण में जिन दुर्गा के बारे में बताया गया है,उनमे महालक्ष्मी , नंदा , नन्दा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं । अल्मोड़ा स्थित नंदा देवी का मंदिर उत्तराखंड के प्रमुख मंदिरों में से एक है | कुमाऊँ में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पोंथिग, कपकोट तहसील, चिल्ठा, सरमूल आदि में नन्दा देवी के मंदिर स्थित हैं। अल्मोड़ा में मां नंदा की पूजा-अर्चना तारा शक्ति के रूप में तांत्रिक विधि से करने की परंपरा है। पहले से ही विशेष तांत्रिक पूजा चंद शासक व उनके परिवार के सदस्य करते आए हैं |( नंदा देवी मंदिर का इतिहास , पौराणिक कथा एवम् मान्यताये)
- नंदा देवी मेला (नंदाअष्टमी , भाद्र शुल्क पक्ष)नंदा देवी का मेला हर साल भाद्र मास (महीने) की अष्टमी (नंदा अष्टमी) के दिन आयोजित किया जाता है | पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी जाती हैं। पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है। यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से बनाई जाती हैं। मूर्ति का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नन्दादेवी के सद्वश बनाया जाता है। षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन, अक्षत एवम् पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्त्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाते है। धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं। जो स्तम्भ पहले हिलता है उसे देवी नन्दा बनाया जाता है । जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं।सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है। इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते है।मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है। इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं। दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं। अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न कर बलिदान किये जाते हैं। नवमी के दिन माँ नंदा और सुनंदा को डोलो में बिठाकर अल्मोड़ा और आसपास के क्षेत्रो में शोभायात्रा के रूप में निकाली जाती है | 3-4 दिन तक चलने वाले इस मेले का अपना एक धार्मिक महत्व है | (नंदा देवी मंदिर का इतिहास , पौराणिक कथा एवम् मान्यताये )
- नंदा देवी राज जात यात्राराजजात या नन्दाजात का अर्थ है राज राजेश्वरी नंदा देवी की यात्रा | गढ़वाल क्षेत्र में देवी देवताओं की “जात”(देवयात्रा) बड़े धूमधाम से मनाई जाती है | जात का अर्थ होता है “देवयात्रा” | लोक विश्वास यह है कि नंदा देवी हिंदी माह के भादव के कृष्णपक्ष में अपने मायके पधारती है | कुछ दिन के पश्चात उन्हें अष्टमी के दिन मायके से विदा किया जाता है | राजजात या नन्दाजात यात्रा देवी नंदा को अपने मायके से एक सजी सवरी दुल्हन के रूप में ससुराल जाने की यात्रा है |इस अवसर पर नंदा देवी को डोली में बिठाकर एवम् वस्त्र , आभूषण , खाद्यान्न , कलेवा , दूज , दहेज़ आदि उपहार देकर पारंपरिक रूप में विदाई की जाती है | कुमाउनी और गढ़वाली लोग उत्सव को माँ नंदा को मायके से ससुराल के लिए विदाई के रूप में मानते है | नंदा देवी राज जात यात्रा हर बारह साल के अंतराल में एक बार आयोजित की जाती है | हज़ारो श्रद्धालु या भक्त नंदा देवी राज जात में शामिल होते है और यात्रा की इस रस्म को बहुत ही हर्ष और उल्लास के साथ मनाते है |
नंदा देवी मंदिर की स्थापना का पौराणिक इतिहास !
नंदा देवी मंदिर के पीछे कई ऐतिहासिक कथा जुडी है और इस स्थान में नंदा देवी को प्रतिष्ठित (मशहूर) करने का सारा श्रेय चंद शासको का है | कुमाऊं में माँ नंदा की पूजा का क्रम चंद शासको के जामने से माना जाता है | किवंदती व इतिहास के अनुसार सन 1670 में कुमाऊं के चंद शासक राजा बाज बहादुर चंद बधाणकोट किले से माँ नंदा देवी की सोने की मूर्ति लाये और उस मूर्ति को मल्ला महल (वर्तमान का कलेक्टर परिसर, अल्मोड़ा) में स्थापित कर दिया , तब से चंद शासको ने माँ नंदा को कुल देवी के रूप में पूजना शुरू कर दिया |
इसके बादबधाणकोट विजय करने के बाद राजा जगत चंद को जब नंदादेवी की मूर्ति नहीं मिली तो उन्होंने खजाने में से अशर्फियों को गलाकर माँ नंदा की मुर्ति बनाई | मूर्ति बनने के बाद राजा जगत चंद ने मूर्ति को मल्ला महल स्थित नंदादेवी मंदिर में स्थापित करा दिया | सन 1690 में तत्कालीन राजा उघोत चंद ने पार्वतीश्वर और उघोत चंद्रेश्वर नामक “दो शिव मंदिर” मौजूदा नंदादेवी मंदिर में बनाए | वर्तमान में यह मंदिर चंद्रेश्वर व पार्वतीश्वर के नाम से प्रचलित है | सन 1815 को मल्ला महल में स्थापित नंदादेवी की मूर्तियों को कमिश्नर ट्रेल ने उघोत चंद्रेश्वर मंदिर में रखवा दिया |
नंदा देवी मंदिर की मान्यता (BELIEFS OF NANDA DEVI TEMPLE)
प्रचलित मान्यताओ के अनुसार एक दिन कमिश्नर ट्रेल नंदादेवी पर्वत की चोटी की ओर जा रहे थे , तो अचानक रास्ते में बड़े ही रहस्यमय ढंग से उनकी आँखों की रोशनी चली गयी | लोगो की राय(सलाह) पर उन्होंने अल्मोड़ा में नंदादेवी का मंदिर बनवाकर उस स्थान में नंदादेवी की मूर्ति स्थापित करवाई , तो रहस्यमय तरीके से उनकी आँखो की रोशनी लौट आई | इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि राजा बाज बहादुर प्रतापी थे | जब उनके पूर्वज को गढ़वाल पर आक्रमण के दौरान सफलता नहीं मिली , तो राजा बाज बहादुर ने प्रण किया कि उन्हें युद्ध में यदि विजय मिली , तो वो नंदादेवी को अपनी ईष्ट देवी के रूप में पूजा करेंगे | कुछ समय के बाद गढ़वाल में आक्रमण के दौरान उन्हें विजय प्राप्त हो गयी , और तब से नंदा देवी को ईष्ट देवी के रूप में भी पूजा जाता है |
मानसखण्ड में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि मां नंदा के दर्शन मात्र से ही मनुष्य ऐश्वर्य को प्राप्त करता है तथा सुख-शांति का अनुभव करता है